पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२३०

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छात् @ . ज २२७ ॐ के प्राण हैं। वे बाल-लीला के रस में सुख मान रहे हैं। होम) वारेहि ते निज हित पति जानी ॐ लछिमल राम चरन रति मानी ॐ भरत शत्रुहन दूनी भाई ॐ प्रभु सेवक जसि श्रीति वड़ाई • बचपन ही से रामचन्द्र को अपनी परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मण ॐ ने उनके चरणों में प्रीति लगाई । भरत और शत्रुब्न दोनों भाइयों में स्वामी और राम सेवक की जैसी प्रीति की प्रशंसा है, वैसी प्रीति हुई। * स्याम गौर सुन्दर दोउ जोरी ॐ निरखहिं छवि जननी तृ तोरी चारिउ सील रूप गुन धामा ॐ तदपि अधिक सुखसागर रामा • श्याम और गोरे शरीर वाली दोनों सुन्दर जोड़ियों की शोभा मातायें तृण ॐ तोड़कर ( जिसमें दीठ न लग जाये ) देखती हैं। यों तो चारों ही पुत्र शील, के रूप और गुण के धाम हैं, पर तो भी सुख के समुद्र रामचन्द्रजी सबसे अधिक थे। ॐ हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा $ लूचत किरन मनोहर हासा के ) कबहुँ उछंग. कबहुँ वर पलना छ मातु दुलारई कहि प्रिय ललना उनके हृदय में कृपा-रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनका मनोहर हास्य । उसकी किरणों को सूचित करता है। कभी गोद में, कभी सुन्दर हिंडोले पर बैठाकर माता प्यारे और लाल कहकर दुलार करती हैं। ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन विगत बिनोद । 18 सो अज प्रेम गति बस कौसल्या के गोद ॥१९८॥ जो सर्वव्यापक, निरंजन, निर्गुण और हर्ष-विषाद से रहित अजन्मा ब्रह्म हैं, वह प्रेम और भक्ति के वश कौशल्या की गोद में खेल रहे हैं। कैं काम कोटि छवि स्याम सरीरा ॐ नील कंज बारिद गंभीरा । अरुन चरन पंकज नख जोती ॐ कमल दलन्हि बैठे जनु मोती उनके श्याम शरीर की शोभा करोड़ों कामदेवों के समान, नीले कमल के । समान और जल से भरे हुये मेघ के समान है। लाल-लाल वरण-कमलों के । नख की ज्योति ऐसी मालूम होती है, जैसे कमल के पत्तों पर मोती बैठे हों। । रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहै ॐ चूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहै। कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा की नाभि गॅभीर जान जिन्ह देखा १. बचपन से । २. चन्द्रमा ।

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