पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२३६

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| आन- २३३ । हुँ जाकी सहज स्त्रास सूति चारी ॐ सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी राम विद्या विनयं निपुन गुन सीला ॐ खेलहिं खेल सकल नृपलीला चारों वेद जिनकी स्वाभाविक साँस हैं, वे भगवान् पढे, यह चड़े कौतूहल राम की बात है। वे विद्या, विनय, गुण और शील में बड़े निपुण हैं, और सब राजाओं की लीलाओं ही के खेल हैं। राम करतल बान धनुष अति सोहा ॐ देखत रूप चराचर मोहा जिन्ह बीथिन्ह विहरहिं सब भाई ॐ थकित होहिं सव लोग लुगाई हाथों में वाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। उनका रूप देखते ही । चराचर मोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते हैं, उनको देख कर उन गलियों के सब स्त्री-पुरुष आनन्द से शिथिल हो जाते हैं। म) - कोसलपुर बासी नर नारि कुछ अरु बाल।। ॐ ! प्रानहूँ तें प्रिय लागहिं सब कहँ राम कृपाल ।२०४॥ अयोध्या के निवासी पुरुष-स्त्री, वृद्ध और बालक सबको कृपालु राम प्राणों से भी अधिक प्यारे लगते हैं। बंधु सखा सँग लेहिं बुलाई छ वन मृगया' नित खेलहिं जाई , पावन मृग मारहिं जिय जानी ॐ दिन प्रति नृपहिं देखावहिं बानी | रामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट-मित्रों को साथ बुला लेते हैं और नित्य चन | में जाकर शिकार खेलते हैं। मन में पवित्र समझ करके मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन राजा को लाकर दिखलाते हैं। जे मृग राम बान के मारे ॐ ते तनु तजि सुरलोक सिधारे । अनुज सखा सँग भोजन करहीं ॐ मातु पिता अश्या अनुसरहीं जो मृग रामचन्द्रजी के बाणों से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे। रामचन्द्रजी अपने छोटे भाइर्यों और सखाओं के साथ भोजन करते हैं और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं। । जेहि बिधि सुखी होंहि पुर लोगो के करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा ?

  • बेद पुरान सुनहिं मन लाई ॐ अषु कहहिं अनुजन्ह समुझाई | जिस प्रकार नगर के लोग सुखी हों; कृपा के भण्डार रामचन्द्रजी वैसा ।

- १. शिकार । २. आज्ञा ।