पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२३८

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है . इसी बहाने चलकर उनके चरणों का दर्शन भी करू और विनय करके दोनों म भाइयों को ले भी आऊँ। अहा ! ज्ञान, वैराग्य और सब गुर्गों के घर जो प्रभु म ॐ भगवान हैं, उनको मैं आँख भरकर देखेंगा भी । - बहु विधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार। -*-* *रि भजन सजू जल गए अ५ दरबार ॥२०६॥ ॐ बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुये जाने में देर नहीं लगी । सरयू के जल में स्नान करके वे राजा के दरबार में पहुँचे ।। मुनि श्रागमन सुना जब राजा से मिलने गयउ लेइ विप्र समाजा । करि दण्डवत मुनिहिं सनमानी छ निज आसन वैठारेन्हि ज्ञानी राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों को समाज साथ लेकर मिलने गये, और दंडवत् करके, मुनि का सत्कार करके, उन्हें लाकर राजा ने अपने आसन पर बैठाया। चरन पखारि कीन्हि अति पूजा की मो सम आजु धन्य नहिं दूजा । एमविविध भाँति भोजन करवावा छ सुनिवर हृदय हरप अति पावा। चरणों को धोकर बहुत पूजा की और कहा--आज मेरे समान धन्य दूसरा एम) नहीं है। फिर तरह-तरह के भोजन करवाये, जिससे श्रेष्ठ मुनि ने हृदय में बड़ा है हर्ष प्राप्त किया। पुनि चरनन्हि मेले सुत चारी ॐ राम देखि मुनि देह विसारी । को भए मगन देखत मुख सोभा ॐ जनु चकोर पूरन ससि लोसा | फिर राजा ने मुनि के चरण पर चारों पुत्रों को लाकर डाला । रामचन्द्रजी को देखकर मुनि ने अपनी देह की सुधि भुला दी। रामचन्द्रजी के मुख की । शोभा देखते हुये वे ऐसे मग्न हो गये, जैसे चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो। तव मन हरषि वचन कह राऊ ॐ मुनि अस कृपा न कीन्हेहु काऊ हो आगमन तुम्हारा ॐ कहहु सो करत न लावउँ वारा तुम एम् केहि कारन तब मन में हर्षित होकर राजा ने वचन कहा--हे मुनि ! ऐसी कृपा और १. लाकर । २. गिराया, डाला।