पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२४

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निर्मल करके मैं संसार के आवागमन से छुड़ानेवाले रामचरित का वर्णन करताहूँ ।

बंदउँ प्रथम महीसुर' चरना । मोह जनित संसय सव हरना ॥
सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥

मैं पहले पृथ्वी के देवता बाह्मणों के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जो अज्ञान से पैदा हुए सब सन्देहों को हरने वाले है । सज्जनों का समाज सच गुणों की खान है । मैं प्रेमसहित सुन्दर बाणी से उसको प्रणाम करता हुँ ।

साधु चरित सुम सरिस कपासू । निरस विसद गुनमय फल जासू ॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा । वंदनीय जेहि जग जस पावा ॥

सज्जनों का चरित कपास के समान कत्याण करने वाला है । नीरस ( विषय- वासना से रहित) उज्ज्वल, गुण ( डोरा और सटवत्ति से युक्त है । जो दुःख सह करके दूसरों के छिद्र (दोष) को ढकता हैँ और जिसने जगत में वन्दना करने योग्य यश पाया है । ( पूर्णोपमालण्कार )

मुद मंगल मय सन्त समाजू । जो जग जंगम तीस्ग्राजू ॥
राम भगति जहँ सुरसरि धारा । सरसई ब्रह्म बिचार प्रचारा ॥

सन्तों का समाज आनन्द-मंगल-युक्त है । वह संसार में चलता-फिरता तीर्थराज ( प्रयाग) है । उस सन्त-समाजरूपी प्रयाग में राम की भक्ति गङ्गा की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रवाह सरस्वती है ।

विधि निषेधमय कलि मल हरनी । करमकथा रविनंदिनि बरनी ॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी ' । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥

कलियुग के पापों को दूर करने वाली, करने और न करने योग्य कर्मों की कथा सूर्य-पुत्री यमुना है । इस तरह विष्णु और शिवजी की क्या त्रिवेणीरुप से शोभित है, जो सुनते ही सब आनन्द-मंगल की देने वाली है ।

बटु बिस्वास अचल निज धर्मा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥
अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देइ सद्य ' फल प्रगट प्रभाऊ ॥

उस संत-समाजरूपी प्रयाग में अपने धर्म मैं अचल विश्वास का होना ही

१. ब्राह्मण । २. सरस्वती । ३. त्रिवेणी । ४. तत्काल