निर्मल करके मैं संसार के आवागमन से छुड़ानेवाले रामचरित का वर्णन करताहूँ ।
बंदउँ प्रथम महीसुर' चरना । मोह जनित संसय सव हरना ॥ सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥
मैं पहले पृथ्वी के देवता बाह्मणों के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जो अज्ञान से पैदा हुए सब सन्देहों को हरने वाले है । सज्जनों का समाज सच गुणों की खान है । मैं प्रेमसहित सुन्दर बाणी से उसको प्रणाम करता हुँ ।
साधु चरित सुम सरिस कपासू । निरस विसद गुनमय फल जासू ॥ जो सहि दुख परछिद्र दुरावा । वंदनीय जेहि जग जस पावा ॥
सज्जनों का चरित कपास के समान कत्याण करने वाला है । नीरस ( विषय- वासना से रहित) उज्ज्वल, गुण ( डोरा और सटवत्ति से युक्त है । जो दुःख सह करके दूसरों के छिद्र (दोष) को ढकता हैँ और जिसने जगत में वन्दना करने योग्य यश पाया है । ( पूर्णोपमालण्कार )
मुद मंगल मय सन्त समाजू । जो जग जंगम तीस्ग्राजू ॥ राम भगति जहँ सुरसरि धारा । सरसई ब्रह्म बिचार प्रचारा ॥
सन्तों का समाज आनन्द-मंगल-युक्त है । वह संसार में चलता-फिरता तीर्थराज ( प्रयाग) है । उस सन्त-समाजरूपी प्रयाग में राम की भक्ति गङ्गा की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रवाह सरस्वती है ।
विधि निषेधमय कलि मल हरनी । करमकथा रविनंदिनि बरनी ॥ हरि हर कथा बिराजति बेनी ' । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥
कलियुग के पापों को दूर करने वाली, करने और न करने योग्य कर्मों की कथा सूर्य-पुत्री यमुना है । इस तरह विष्णु और शिवजी की क्या त्रिवेणीरुप से शोभित है, जो सुनते ही सब आनन्द-मंगल की देने वाली है ।
बटु बिस्वास अचल निज धर्मा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥ सबहि सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥ अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देइ सद्य ' फल प्रगट प्रभाऊ ॥
उस संत-समाजरूपी प्रयाग में अपने धर्म मैं अचल विश्वास का होना ही
१. ब्राह्मण । २. सरस्वती । ३. त्रिवेणी । ४. तत्काल