पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२४३

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२४० काउनिल & । अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ वचन कही हैं। ए अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगलनयन जलधार बही या । राम के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरण के छूते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले रामचन्द्रजी को देख के कर, वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई । अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो हो गई; उसको रोमाञ्च हो आया; उसके मुख से बात नहीं निकलती थी। वह के अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या भगवान् के चरणों में लिपट गई और उसके दोनों नेत्र से जल की धारा बहने लगी। या धीरज मन कीन्हा प्रभु कहँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई। । अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी श्यान गस्य जय रघुराई ॥ है। मैं नारि अपान प्रभु जगपावन दिन रिपु जन सुखदाई। राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहि आई। युवा फिर उसने मन को ठिकाने किया; प्रभु को पहचाना और रामचन्द्रजी की । * कृपा से भक्ति प्राप्त की। अति निर्मल वाणी से उसने स्तुति प्रारम्भ की हे के से ज्ञान से जानने योग्य रामचन्द्रजी ! आपकी जय हो। मैं ( सहज ही ) अपवित्र ) * स्त्री हुँ; आप संसार को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के ( संसार को रुलाने वाले ) के शत्रु हैं। हे कमल ऐसे नेत्र वाले, संसार (जन्म मरण ) के भय से छुड़ाने वाले ! मैं शरण आई हूँ, रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ।। वाले मुनि साए जो दीन्हाअति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। म देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥ बिनती प्रभु मोरी मैं मतिभोरी नाथ न माँग बर आना। पद कमल पराग र अनुराग मम मन मधुप करें पाना । । मुनि ने जो मुझे शाप दिया, वह बहुत ही अच्छा किया, मैं उसे उनकी म ॐ बड़ी कृपा मानती हैं। जिसके कारण संसार के दुःख को मिटाने वाले हरि ॐ न ( आप ) को मैंने आँख भरकर देखा इस लाभ को शिवजी जानते हैं। हे प्रभो ! म मैं बड़ी भोली-भाली बुद्धि की हूँ, मेरी एक विनती है, मैं दूसरा वर नहीं माँगती। ॐ