पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२४४

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केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मनरूपी भौंरा आपके चरण-कमलों के पराग का प्रेमरूपी रस पान करता रहे। जेहि पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सील धरी। ए सोई पद पंज जेहि गूंजत अजसस सिर धरेउ कृपाल हरी ॥ एम्। ) एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। ) हैं जो अति मनभावः सो वह पवित्र गइ पति लोक अनंद भरी ॥ एम् जिन चरणों से परम पवित्र ( देव-नदी ) गङ्गाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी । | ने सिर पर धारण किया, वही चरण-कमल, जिसे ब्रह्मा पूजते हैं, कृपालु भगवान् । | ( आप ) ने मेरे सिर पर रक्खा । इस प्रकार स्तुति करके, बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर गौतम की स्त्री अहल्या, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, वह बर पाकर, आनन्द में भरी हुई, पति के लोक को चली गई। सम) अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल ।। | - तुलसदास सळताह सजु छाँडि पट जंजाल।२११ प्रभु ( रामचन्द्रजी ) ऐसे दीनबन्धु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं । तुलसीदास कहते हैं, हे शठ ( मन ) ! तू कपट का जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर ।। चले रास लछिमन मुनि संगा ॐ गए जहाँ जग पावनि गंगा ॐ गाधिसूनु सब कथा सुनाई ॐ जेहि प्रकार सुरसरि महि आई राम और लक्ष्मण सुनि के साथ चले । वे वहाँ गये, जहाँ जगत् को पवित्र ॐ करने वाली गङ्गाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्र ने वह सब कथा (राम) कह सुनाई, जिस प्रकार गङ्गाजी पृथ्वी पर आई। । तब प्रभु रिसिन्ह समेत नहाए के विविध दान सहिदेवन्हि पाए । हरषि चले मुनि बृन्द सहाया ॐ वेगि विदेह नगर निअराया' तब प्रभु ने ऋषियों सहित ( गंगाजी में ) स्नान किया । ब्राह्मणों ने | भाँति-भाँति के दान पाये । फिर मुनियों के समूह के साथ वे प्रसन्न होकर बने । * और शीघ्र ही राजा जनक के नगर के निकट पहुँच गये । १. निकट आया ।