पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

छाला

  • * २४५ भए सव सुखी देखि दोउ भ्राता छ वारि विलोचन पुलकित गाता एम् मूरति मधुर मनोहर . देखी ॐ भयेउ विदेहु विदेहु विसेपी ।

दोनों भाइयों को देखकर सभी सुखी हुये । सब के नेत्रों में (हर्ष के) आँसू आ गये और शरीर रोमाञ्चित हो उठे। राम की मधुर और मनोहर मूर्ति देखकर विदेह ( जनक ) सचमुच विदेह ( देह की सुध-बुध से रहित ) हो गये। - प्रेम मगन मलु जनि चुप र विवेझ रि धीर।।

  • बोलेउ मुनि पद नाई सिस गदगद गिर गॅसीर।२१५। होम | मन को प्रेस में मग्न जानकर राजा जनक सावधान होकर, धैर्य धारण । रामे करके, मुनि के चरणों में सिर नवाकर गद्गद् और गम्भीर वाणी वोले----

कहहु नाथ सुन्दर दोउ वालक ॐ मुनि कुल तिलक किनृप कुल पालक । ब्रह्म जो निगम नेति कहि गोवा ॐ उभय' वेप धरि की सोइ आवा हे नाथ ! बताइये, ये दोनों सुन्दर बालक मुनि के कुल के तिलक हैं, या | किसी राज-वंश के पालक १ अथवा वेदों ने जिस ब्रह्म को नेति' कहकर गान। किया है, कहीं वही तो युगल रूप धरकर नहीं आया ? सहज विराग रूप मन मोरा ॐ थकित होत जिमि चंद चकोरा तातें प्रभु पूछउँ सतिभाऊ ॐ कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ स्वभाव ही से बैराग्य रूप मेरा मन ( इन्हें देखकर ) इस तरह मुग्ध हो । राम रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। इसलिये हे स्वामी ! मैं आपसे सत्यभाव रामो के से पूछता हूँ, बताइये, छिपाव न कीजिये । इन्हहिं विलोकत अति अनुरागी ॐ बरवस ब्रह्मसुखहि मन त्यागी कह सुनि बिहँसि कहे नृप नीका के वचन तुम्हार न होइ अलीका इनको देखते हुये अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने आग्रह करके ब्रह्मसुख को छोड़ दिया है। मुनि ने हँसकर कहा-हे राजा ! आपने ठीक ही कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता । । ये प्रिय सबहिं जहाँ लगि प्रानी का मन सुसुकाहिं रामु सुनि वानी * रघुकुल मनि दसरथ के जाए ॐ मम हित लागि नरेस पठाए । राम): जगत् में जहाँ तक प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं। राम मुनि की बात सुन तो १. दो। २. लिये ।।