पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अक्षयवट है । तीर्थराज सुकर्मो का समाज ( मेला ) है । यह सब दिन, सबको सहज ही प्राप्त हो सकता है । आदरपूर्वक सेवन करने से यह दुःखों का नाश करने वाला हैं । यह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय हैँ । यह तत्काल फल देता है । इसका प्रभाव प्रत्यक्ष है ।

दोहा- सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग । लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ।।२।। जो मनुष्य प्रसन्नचित्त से इस तीर्थराजरूपी संत-समाज में उपदेशों को सुनकर समझते हैं और प्रेम के साथ उसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर से-इसी जन्म में-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों फलों को पाते हैं । । २। ।

मज्जन फल पेषिय ततकाला । काक होहिं पिक वकउ मराला ॥ सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसङ्गति महिमा नहिं गोई ॥ इस सन्त-समाजरूपी तीर्थराज में स्नान करने का फल तत्काल देखने में आता है कि कौए तो कोयल और बगले हंस होजाते हैं । यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे; क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी हुई नहीं है ।

बालमीकि नारद घटजोनी' । निज निज मुखनि कही निज होनी'॥ जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥ बाल्मीकि, नारद और अगस्त्य मुनि ने अपनी-अपनी कथा (जीवन का वृत्तान्त) अपने ही मुँह से कही है । इस संसार में जल में रहनेवाले, भूमि पर रहनेवाले और आकाश-विहारी जो नाना प्रकार के जड़ और चेतन जीव हैं-

मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ॥ सो जानब सतसङ्ग प्रभाऊ । लोकहु वेद न आन' उपाऊ ॥ उन्होंने जो दृष्टि, कीर्ति, गति, ऐश्वर्य और कल्याण आदि जब कभी, जिस किसी उपाय से, जहाँ-कहीं पाया है वह सब सत्संग ही का प्रभाव जानो । इनके मिलने का लोक में और वेद में कोई दूसरा उपाय ही नहीं है ।

बिनु सतसङ्ग बिवेकु न होई । रामकृपा बिनु सुलभ न सोई ॥ सतसङ्गति मुद मङ्गल मूला । सोह फल सिधि सब साधन फूला ॥

१ जीते जी। २ छिपी । ३ अगस्त्य मुनि । ४ जीवन चरित्र । ५ अन्य दूसरा ।