पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२५०

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  1. , बाल-झाङ),

२४७ | रिषय संग रघुबंस अनि करि भोजलु विस्रालु। एम • बैठे प्रश्न आता सहित दिवसु रहा मरि जाम।२१७। एक ऋषि विश्वामित्र के साथ रघुकुल के शिरोमणि प्रभु रामचन्द्रजी भोजन हैं और विश्राम करके भाई-सहित बैठे। उस समय पहर भर दिन शेप रह ॐ गया था । लषन हृदय लालसा विसेषी ॐ जाई जनकपुर अाइश देखी राम प्रभु भय बहुरि सुनिहि सकुचाहीं ॐ प्रगट न कहहिं मनहिं सुसुकाही हैं लक्ष्मण के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आना रामो चाहिये। एक तो प्रभु रामचन्द्र का भय है, दूसरे वे मुनि से भी सकुचाते हैं। प्रकट में कुछ नहीं कहते हैं, मन-ही-मन मुसकुरा रहे हैं। । राम राम अनुज मन की गति जानी ॐ भगत वछलता हियँ हुलसानी उनको परम बिनीत सकुचि सुसुकाई छ बोले गुर अनुसासन पाई। । राम ने छोटे भाई ( लक्ष्मण ) के मन की दशा जान ली, तव उनके हृदय में भक्त-वत्सलता उमड़ आई । तव गुरु का आदेश पाकर अत्यन्त विनम्र राम सकुचाते हुये मुसकुराकर बोले| नाथ लषनु पुर देखन चहहीं ॐ प्रभु सकोच डर प्रगट न कहीं ॐ जौं राउर अायसु मैं पावौं ॐ नगर देखाइ तुरत लै अावों राम हे नाथ ! लक्ष्मण जनकपुर देखना चाहते हैं। किन्तु पिके डर और । संकोच के कारण प्रकट नहीं कहते हैं। यदि आपकी अज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको राम नगर दिखत्नाकर तुरन्त ही वापस ले आऊँ। । सुनि मुनीस कह बचन सप्रीती $ी ऊस न राम तुम्ह राखहु नीती धरम सेतु पालक तुम्ह ताता है प्रेम विवस सेवक सुख दाता यह सुनकर मुनिवर ने प्रेम-सहित वचन कहा-हे राम ! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे। हे तात ! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के वशीभूत होकर सेवकों को सुख देने वाले हो । | जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ॥ । करहु सुफल सबके लयन सुन्दर वदन देखाई॥२१८॥