पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२६

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सत्संग के बिना भले झे का ज्ञान नहीं होता और रामचन्द्रजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में नहीं मिलता । सत्संगति आनन्द और मंगल की जड़ है । सिद्धियों का फल वही है और सब साधन तो उसके फूल हैं । ( द्वितीय कारण- माला अलङ्कार )

सठ सुधरहिं सतसङ्गति पाई । पारस परस कुधातु सोहाई ॥ 
विधिबस सुजन कुसङ्गति परहीं । फनिमनिसम निज गुन अनुसरहीं ॥

दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के छू जाने से लोहा सुन्दर (सुवर्ण) हो जाता है । दैवयोग से यदि सजन कमी अगति में पड़ जाते र्है, तो भी वे साँप की मणि के समान अपने गुणों ही का अनुसरण करते हैं । ( अतद्‌गुण अलङ्कार )

बिधि हरि हर कवि कोविद वानी । कहत साधुमहिमा सकुचानी ॥ 
सो मो१ सन२ कहि जात न कैसे । साक बनिक मनि गुनगन जैसे ॥

ब्रह्मा, विष्णु महादेव, कवि, पण्डित और सरस्वती भी साधुओं की महिमा के वर्णन करने में सकुचाते है । वह मुझसे वैसे ही नहीं कहा जा रहा है, जैसे साग-भाजी बेचनेवाला मणियों के गुण नहीं कह सकता ।

दोहा:- बंदउँ सन्त समानचित हित अनहित नहिं कोउ । 
अंजलिगत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोउ।३। (१)

मैं सन्तों को प्रणाम करता हूँ, जिनका चित्त सवके लिये समान है अर्थात् जो समदर्शी हैं, और जिनका न कोई मित्र है, न कोई शत्रु; जैसे अंजलि मैं रखे हुये अच्छे फूल दोनों ही हाथों में बराबर सुगन्ध देते हैं ॥३॥

सन्त सरलचित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।
बालविनय सुनि करि कृपा रामचरन रति देहु ।३। (२) 

ऐसे सरलचित्त और जगत के हितकारी सन्तजन अपने स्वभाव और मेरे स्नेह को जानकर, मुझ बालक के विनय को सुनकर कृपा करके श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में मुझे प्रीति दे ।

वहुरि वंदि खलगन सतिभाये३ । जे विनु काज दाहिनेहु वाये ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरे । उजरे हरष विषाद बसेरे ॥
१. मुझ । २. से 1 ३. सद्‌भाव से, प्रेम-सहित ।