पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

'छी- छ

  • २५8 । है , सिय सभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि। ।

बोले सुचिं मन अजुजसन बचन समयअनुहारि।२३० प्रभु रामचन्द्रजी हृदय में सीता की शोभा को वर्णन करके और अपनी ॐ दशा को विचारकर पवित्र मन से अपने छोटे भाई से समय के अनुसार से बचन बोले तात जनक तनया यह सोई ॐ धनुष जग्य जेहि कारन होई राम पूजन गौरि सखी लइ आई ६ करत प्रकास फिरइ फुलवाई राम) | हे तात ! यह वही जनक की कन्या है, जिसके लिये धनुष-यज्ञ हो रहा हैं एम) है। सखियाँ पार्वतीजी की पूजा के लिये इसे ले आई हैं। यह फुलवाड़ी में | प्रकाश करती हुई फिर रही है। जासु बिलोकि अलौकिक सोभा ॐ सहज पुनीत मोर मनु छोभा सो सब कारन जान बिधाता ॐ फरकहिं सुभग अंग सुनु भ्राता | जिसका अलौकिक सौन्दर्य देखकर स्वभाव ही से पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। उस सब कारण को विधाता ही जानते हैं । किन्तु हे भाई ! सुनो, मेरा सुन्दर ( दाहिना ) अंग फड़क रहा है। रघुवंसिन्ह कर सहज सुभाऊ $ मन कुपंथ पगु धरई ने काङ सोहि अतिसय प्रतीति मन केरी ॐ जेहि सपनेहु पर नारि न हेरी ए रघु के वंश वालों का यह, सहज ( वंशगत ) स्वभाव होता है कि उनका मन कभी बुरे रास्ते पर पैर नहीं रखती । मुझे तो अपने मन का अत्यन्त ही विश्वास है कि उसने स्वप्न में भी पराई स्त्री की इच्छा नहीं की। जिन्ह के लहहिं न रिपु रन पीठी ॐ नहिं पावहिं परतिय मन डीटी मंगन लहहिं न जिन्ह के नाहीं % ते नरवर थोरे जग माहीं रण में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते, पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिक्षुक जिनकी ‘नाहीं नहीं पाते, ऐसे श्रेष्ठ पुरुष ) संसार में थोड़े हैं। है । करत बतकही अनुज काल सन सिय रूप लोभान । । - सुख सरोजमरंद छबि करइ सक्षुए इव पान ॥२३१॥