पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२६३

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ताकि मृग सावक कर देख रही हैं। उनकै बाली सीता जहाँ दृष्टि से । २६०, माछाँट न . राम छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर सीता के रूप में लुभाया हुआ के उनको मन सीता के कमल ऐसे मुख की मकरंदरूपी छवि को भौंरे की तरह राम, पी रहा है। चितवति चकित चहूँ दिसि सीता ॐ कहँ गए नृप किसोर मन चिंता तो जहँ विलोकि मृग सावक नयनी ॐ जनु तहँ बरिस कमल सित से नी' । सीता चारों ओर चकित होकर देख रही हैं। उनके मन में चिन्ता है कि एम है राजपुत्र कहाँ गये । वह मृग के बच्चे की-सी आँख वाली सीता जहाँ दृष्टि एम) डालती हैं वहाँ मानो सफ़ेद कमलों की पंक्ति बरस पड़ती है। [ अनुक्तविषया राम । वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार ] लता ओट तब सखिन लखाए ॐ स्यामल गौर किसोर सुहाए एम् हूँ देखि रूप लोचन ललचाने ॐ हरषे जनु निज निधि पहिचाने के तब सखियों ने लता की आड़ में साँवले और गोरे सुन्दर कुमारों को दिखलाया। उनके रूप को देखकर नेत्र ललचा उठे। ऐसे हर्षित हुये, मानो उन्होंने अपना ख़जाना ही पहचान लिया । थके नयन इबुपति छवि देखें $ पलन्हिहू परिहरी निमेषं अधिक सनेह देह मैं भोरी ॐ सरद ससिहि जनु चितब चकोरी म. रामचन्द्रजी की छवि देखकर नेत्र निश्चल हो गये । पलकों ने भी गिरना (राम) * छोड़ दिया । अधिक स्नेह से देह की सुघ-बुध जाती रही । मानो शरद-ऋतु के | चन्द्रमा को चकोरी देख रही हो । लोचन मग रामहिं उर आनी ॐ दीन्हे पलक झपाट सयानी जव सिय सखिन्ह प्रेमवस जानीं ॐ कहि न सकहिं कछु मन सकुचानीं । नेत्र के मार्ग से राम को हृदय में लाकर सयानी सीता ने पलकों के कपाट बन्दु कर लिये । जब सखियों ने सीता को प्रेम के वश में जाना, तब वे मन में सकुचो गईं; कुछ कह नहीं सकती थी। लताभवन ते प्रगट भै तेहि अवसर दोउ भाई।। 48 निसे जनु जुग विमल बिध जलद पटल बिलगाई।। । उसी समय दोनों भाई लता-कुंज में से प्रकट हुये। मानो दो निर्मल १. पाँती, कतार ।