पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२६५

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२६२ : Z I . ॐ धरि धीरजु एक आलि सयानी ॐ सीता सन वोली गहि पानी है एम् बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू ॐ भूप किसोर देखि किन लेहू एक चतुर सखी धीरज धरकर, सीता का हाथ पकड़कर बोली--पार्वतीजी । राम का ध्यान फिर कर लेना। राजकुमार को देख क्यों नहीं लेती है । । सकुचि सीय तब नयन उघारे ॐ सनमुख दोउ रघुसिंह निहारे * नख सिख देखि राम के सोभा ॐ सुमिरि पिता पलु मनु अति छोभा । तब सीता ने सकुचाकर नेत्र खोले और उन्होंने रघुकुल के दोनों सिंहों को के सामने देखा । सिर से पैर तक राम की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया । परवस सखिन्ह लखी जब सीता ॐ भयउ गहरु मुव कहहिं सभीती राम पुनि आउब एहि बरियाँ काली ॐ अस कहि मन विहँसी एक आली जब सखियों ने सीता को पर-वश ( प्रेम के वश ) देखा, तब सब भयभीत है राम होकर कहने लगीं—बड़ी देर हो रही है, कल इसी समय फिर आयेंगी । ऐसा गुमा कहकर एक सखी मन में हँसी । राम गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी ॐ भयउ विलंबु मातु भय मानी । धरि वड़ि धीर रामु उर आने ॐ फिरी अपनपउ’ पितुबस जाने | सखी की मर्म-भरी वाणी सुनकर सीता सकुचा गई। देर हो गई, यह सोचकर उन्हें माता का भय लगा। बहुत धीरज धरकर, राम को हृदय में ले आकर और अपने को पिता के वश में जानकर वे लौट चलीं। म) । देखन मिस' मृग बिहँग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।। ॐ 1 निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढइ प्रीति न थोरि॥ हैं। , सीता मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने बार-बार घूम लेती हैं। है राम की छवि देख-देखकर उनकी प्रीति कम नहीं बढ़ रही है। * जानि कठिन सिव चाप बिसूरति ॐ चली राखि उर स्यामल मूरति ॐ प्रभु जब जात जानकी जानी ॐ सुख सनेह सोभा गुन खानी । * शिवजी के धनुष को कठोर जानकर बिसूरती ( मन में विलाप करती ) के होम, हुई हृदय में राम की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं । प्रभु राम ने जब सुख, तीन १. वहाना ।