पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२६७

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। २६४ अनुस्का झाला | ॐ चरणों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं। सुमो मोर मनोरथु जानहु नीकें ॐ बसहु सदा उर पुर सबही के राम्रो कीन्हे प्रगट न कारन तेहीं अस कहि चरन गहे बैदेहीं मेरे मनोरथ को अपि भली-भाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके ॐ हृदय-रूपी नगर में निवास करती हैं। इसी से मैंने उसको प्रकट नहीं किया। * ऐसा कहकर सीता ने पार्वतीजी के चरण पकड़ लिये। विनय प्रेम बस भई भवानी ॐ खसी माल मूरति. मुसुकानी सादर सिय प्रसाद सिर धेरेऊ ॐ बोली गौरि हरषु हिय भरेऊ । पार्वतीजी सीता के विनय और प्रेम के वश में हो गई। उनके गले की । * माला सरक पड़ी और मूर्ति मुसकुराई । सीता ने आदर-सहित प्रसाद ( माला ) । | * को सिर पर धारण किया । तब पार्वती का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-- * * [ सूक्ष्म अलंकार | ॐ सुनु सिय सत्य असीस हमारी ॐ पूजिहि मन कामना तुम्हारी राम) नारद वचन सदा सुचि साँचा ॐ सो बर मिलिहि जाहि मन राँचा रामो हे सीता ! मेरी सच्ची आसीस सुनो तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र और सत्य होता है। जिसमें तुम्हारा मन लगा है, ' तुमको वही बर मिलेगा । हैं बंद-मन जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो हो तुम् करुना निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो ॥ पुन । एहि भाँति गौरि असीस सुनि सियसहित हिय हरषीं अली। ॐ तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥ ॐ जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त होगया है, वही स्वभाव ही से सुन्दर साँवला बर के तुमको मिलेगा । वह करुणा के घर और सुजान हैं। तुम्हारे शील और स्नेह को है जानते हैं। इस प्रकार पार्वती का आशीर्वाद सुनकर सीता सखियों समेत हृदय में आनन्दित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं—सीता पार्वती को बार-बार पूजकर है। प्रसन्न मन से राजभवन को गईं।