पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२७

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अब मैं सद्भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूंं, जो बिना कारण ही दाहिने के भी बायें ( अनुकूल के भी प्रतिकूल) रहते हैं । अर्थात् भलाई करने वाले के साथ भी बुराई करते हैं । दूसरों कें हित की हानि ही जिनका लाभ है और जिन को दूसरों के उजड़ने पर आनन्द और बसने पर शोक होता है । [ प्रथम असंगति अलङ्कार ]

हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ॥
जे  परदोष लखहिं सहसाखी । परहित घृत जिन्हके मन माखी ॥ 

विष्णु और शिव के यशरूपी पूर्ण चन्द्र के लिये जो राहु के समान है, जो दूसरी का काम बिगाड़ने में सहसबाहु के समान योद्धा है, जो दूसरों के दोषों को इन्द्र के समान हजार नेत्रों से देखते र्है और दूसरों की लाई रूपी घी कें लिये जिनका मन सकती के समान है । [मालोपमा अलङ्कार ]

तेज कृसानु रोष महिषेसा १ । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥
उदय केतुसम हित सबहीके । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥ 

जो ताप में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और दुर्गुणरूपी धन से जो कुबेर के समान धनी हैं, केतु (पुच्छल तारे) के उदय के समान जिन का उदय (बढ़ना) सब ही के लिये दुखदायी है, कुम्भकर्ण की तरह जिनका सोते रहना ही अच्छा है ।

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि २ गरहीं ३ ॥ 
बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहसबदन बरनइ पर दोषा ॥

जो दूसरों का अकाज करने के लिये अपने शरीर तक का नाश कर देते हैं, जैसे पीला ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं । मैं दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषों को बड़े रोष के साथ शेष जी की तरह हजार मुख से वर्णन करते हैं । [ उत्प्रेक्षा और पूर्णोपमा अलङ्कार ]

पुनि प्रनवउंँ पृथुराज समाना । पर अघ सुनइ सहसदस काना ॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेंही । संतत सुरानीक हित जेही ॥ 
वचन बज्र जेहि सदा पिआरा । सहसनयन पर दोष निहोरा ॥ 

फिर मैं उन दुष्टों को राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिये