पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२७२

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  • सुन्दर साँवले और गोरे शरीर वाले वे दोनों गुण के समुद्र, सुसभ्य और बड़े

| वीर थे। है राजः समाज विराजत रूरे ॐ उडुगल महुँ जलु जुग विधु पूरे होने गुम्वा जिन्ह कैं रही भावना जैसी ॐ प्रभु सूरति तिन्ह देखी तैसी वे राज-समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, जैसे तारागण के समृह में दो एम् पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति को उन्होंने वैसी से ही देखा ।। के देखहिं धूप महा रनधीरा ॐ मनहुँ वीर रस धरे सरीरा राम) डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी ॐ मनहुँ भयानक मूरति भारी राम राजा लोग उन्हें महा रणधीर देख रहे हैं। मानो वीर-रस स्वयं शरीर में रामो धारण किये हुये है। दुष्ट राजा प्रभु को देखकर डर गये । मानो वड़ी भयानक की मूर्ति हो। राम रहे असुर छल छोनिप' वेषा तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा । पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई छ नरभूषन लोचन सुखदाई छल से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में बैठे थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा । नगर-निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भृषण रूप और नेत्रों को सुख देने वाला देखा ।। - नारि बिलोकहिं हरषि हिय लिज निज रुचिअनुरूप। उनी 3gp जल सोहत शृगार धरि रति परम अनूप ॥२४१॥ हैं। स्त्रियाँ हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार देख रही हैं। मानो शृङ्गार रस ही परम अनुपम मूर्ति धरकर सुशोभित हो रहा है। विदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा ॐ बहु मुख कर लोचन सीसा । जनक जाति अवलोकहिं कैसे ॐ सजन सगे प्रिय लागहिं जैसे उन विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिये, जिसके वहुत-से मुख, हाथ, मू पैर, नेत्र और शिर हैं। जनक के सजातीय ( कुटुम्बी ) लोग प्रभु को किस छू प्रकार देखते हैं, जैसे सगे सजन ( सम्बन्धी ) प्रिय लगते हैं। १. राजा ! २. विद्वानों को।