पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२७५

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3 २७२ चा ता.मान । कृरि विनती निज कथा सुनाई ॐ रंगअवनि सव मुनिहि देखाई है। राम जहँ जहँ जाहिँ कुर वर दोऊ ॐ तहँ तहँ चकित चितच सव कोऊ राम्रो विनती करके उन्होंने अपनी कथा कह सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि दिखलाई । सुनि के साथ जहाँ-जहाँ दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब राम्रो लोग आश्चर्यचकित होकर देखने लगते हैं। निज निज रुख रामहिं सव देखा ॐ कोउ न जान छछु भरसु विसेखा भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ राजा मुदित महासुख लहेऊ सबने राम को अपनी ही ओर रुख ( मुरब ) किये हुये देखा, परंतु इसके विशेष रहस्य कोई न जान सको। सुनि ने राजा से कहा--रचना अच्छी है। सुनकर राजा ने हर्षित होकर अत्यन्त सुख पाया। हो । सव संचन्ह तें मंचु एक सुन्दर बिसद बिसाल। म मुलि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ॥२४४॥ हुँ सब मञ्चों से एक मञ्च अधिक सुन्दर, लम्बा-चौड़ा और बड़ा था। स्वयं राजा ने मुनि-सहित दोनों भाइयों को वहाँ ले जाकर बैठाया। प्रभुहि देखि सव नृप हियँ हारे ॐ जनु राकेस उदय भयें तारे अस प्रतीति सबके मन माहीं ॐ राम चाप तोरव सक' नाहीं । । प्रभु रामचन्द्रजी को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार मान गये, जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे ( प्रभाहीन ) हो जाते हैं। सबके मन में राम ऐसा विश्वास हो गया कि राम धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं। बिनु भंजेहु भव धनुष विसाला ॐ मेलिहि सीय राम उर माला राम अस विचारि गवनहु घर भाई के जसु प्रतापु वलु तेजु गॅवाई और शिवजी के विशाल धनुष को बिना तोड़े भी सीता राम ही के गले में जयमाला डाल देंगी । हे भाई ! ऐसा समझकर यश, प्रताप, बल और तेज आँबाकर चलो, अपने-अपने घर चलें। विहँसे अपर झूय सुनि वानी ॐ जे अविवेक अंध अभिमानी । तोरेहुँ धनुष व्याहु अवगाहा ॐ विनु तोरे को कुरि विही हैं। दूसरे राजा जो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात में १. शक, संदेह ।।