पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२७९

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व २७६ . . . है। गुरुजनों की लाज से और बड़े समाज को देखकर सीता सकुचो गई। वे में रामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं । हैं राम रूपु अरु सिय छवि देखें ® नर नारिन्ह परिहरी निमेषे सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं की विधि सन विनय करहिं मन माहीं। । राम का रूप और सीता की छवि देखकर स्त्री-पुरुष ने पलक भाँजना छोड़ राम दिया। सव मन ही मन सोचते हैं, पर कहते हुये सकुचाते हैं। मन में वे ब्रह्मा 2 से विनय करते हैं। हरु विधि वेगि जनक.जड़ताई ६ मति हमार असि देहि सुहाई। यम) विनु विचार पनु तजि नरनाहू ॐ सीय राम कर करै विशाहू ॐ . हे व्रह्मा ! शीघ्र ही जनक की जड़ता को हर लो और हमारी ऐसी सुहावनी राम) बुद्धि उन्हें दो कि बिना ही विचार किये, प्रण छोड़कर, वे सीता का विवाह राम वि से कर दें। राम जगु भल केहिहि भाव सच काहू ॐ हठ कीन्हे अन्तहुँ उर दाहू एहि लालसा मगन सव लोग्न ॐ वरु साँवरो, जानकी. जोगू संसार उन्हें अच्छा कहेगा, क्योंकि सबको अच्छा लग रहा है। हठ करने * से अन्त में हृदय में जलन ही होगी। सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे। । हैं कि जानकी के योग्य बर यह साँवला ही है।। रा) तव बंदीजन जनक बोलाए ॐ विरदावली कहत चलि आये है कह नृषु जाइ कहहु पुन मोरा ॐ चले भाँट हियँ हरष न थोरा। .: तब राजा जनक ने बन्दीजनों ( भाटों ) को बुलाया। वे वंश की कीर्ति गाते हुये चले आये । राजा ने कहा--जाकर मेरा प्रण कहो। भाट चले । उनके में कम आनन्द नहीं था। - बोले वंदी' बचन बर सुनहु सकल महिपाल । ५° पन विदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ विसाल।२४९ भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहा—हे सब राजागण ! सुनिये । हम अपनी विशाल । | भुजा उठाकर महाराज जनक का प्रण कहते हैं। * १ पलक गिराना । २. भाट ।