पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२८१

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। २७८ अर्थ हुन । ॐ तव दस हज़ार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह टालने ) से नहीं टलता। शंभु का वह घनुष इस प्रकार नहीं डिगता था, जैसे काम पुरुष स्म) के वचन से सती का मन नहीं चलायमान होता । रामो सव नृप भये जोगु उपहासी ॐ जैसे विनु विराग संन्यासी कीरति विजय वीरता भारी ॐ चले चाप कर वरवस हारी एम्। सब राजा उपहास के योग्य हो गये, जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी हँसी के । योग्य हो जाता है। कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता इन सबको वे धनुष के हार्थों । बरबस हारकर चले गये । सीहत भये हारि हियँ राजा वैठे निज निज जाइ समाजा ॐ नृपन्ह विलोकि जनकु अकुलाने ॐ बोले वचन रोष जनु साने राजा लोग हृदय में हार मानकर श्रीहीन हो गये, और अपने-अपने समाज राम ॐ में जा बैठे। राजाओं को देखकर जनक अकुला उठे और क्रोध में सने हुये-से छु रामा वचन बोले दीप दीप के भूपति नाना $ आये सुनि हम जो पन ठाना । देव दनुज धरि मनुज सरीरा ॐ विपुल वीर आये रनधीरा । मैंने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेक राजा आये। होम ॐ देवता और राक्षस भी मनुष्य का शरीर धारण करके तथा और भी बहुत-से हैं को रणधीर वीर आये। ॐ कुअरि मनोहर विजय बड़ि कीरति अति कमनीय। ॐ का - पावनिहार विरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५॥ | मन को हरने वाली कन्या, बड़ी विजय और अत्यन्त सुन्दर कीर्ति को पाने वाला, घनुष को तोड़ने वाला मानो व्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं। कहहु काहि यह लाभु न भावा ॐ काहुँ न. संकर चाप चढ़ावा रहउ चढ़ाव तोरख भाई ॐ तिलु भरि भूमि न सकेउ छुड़ाई कहिये, यह लाभ किसे नहीं रुचता था ? किसी ने भी शिवजी का धनुष ॐ होम, नहीं चढ़ाया। अरे भाई ! चढ़ाना और तोड़ना तो अलग रहा, कोई तिल भर (म) ॐ भूमि भी छुड़ा न सकी।