पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२८४

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- - । - छ। २८१ । विस्वामित्र समय सुभ जानी ने बोले अति सनेह मय वानी उठहु राम मंजहु भव चापा ३ मेटहु तात जनक परितापा उन विश्वामित्र अच्छा समय जानकर वहुत स्नेह से युक्त वाणी चोले-हे । | राम ! उठो, शिव की धनुष तोड़ो और हे तात ! जनक का दुःख मिटाओ । एम सुनि शुरु बचन चरन सिरु नावा ॐ हरप विषाद न कछु उर वा । * ठाढ़ भये उटि सहज सुलायें ॐ ठवनि जुश्री मृगराजु' लजायें ॐ गुरु के वचन सुनकर राम ने उनके चरणों में सिर नवाया। उनके मन में ॐ न हर्ष हुआ न विषाद । सहज स्वभाव ही से वे उठकर खड़े हो गये । उनकी ॐ ऐंड ( खड़े होने की शनि ) से जवान सिंह भी लज्जित हो जाय ।। ऊँ : उदित उदय गरि मंच पर रघुबर दाल पतंग ।। सुम - बिसे संत सरोज सुब हर लौचन शृङ् ॥२५४॥ मंचरूपी उदयाचल पर रामरूपी बाल-सूर्य को उदित देखकर सब संतरूपी कमल विकसित हुये और नेत्ररूपी भौंरे हर्षित हो गये } [ रूपक अलंकार ] नृपन्ह केरि आसा निसि नासी $ बचन नखत अवली ने प्रकासी ॐ मानी महिप कुमुद सकुचाने के कपटी भूप उलूक लुकाने , राजाओं की आशारूपी रात नष्ट हो गई। उनके वचनरूपी तारों के समूह ॐ का चमकना भी बंद हो गया। अभिमानी राजारूपी कुमुद खुद गये और कपटी राजारूपी उल्लू छिप गये । है भये विसोक कोक मुनि देवा ॐ वरपहिं सुमन जनावहिं सेवा रा गुर पद बन्दि सहित अनुरागी ॐ राम सुनिन्ह सन आयरलु माँगा | मुनि और देवतारूपी चकवे शोकरहित हो गये। देवता फूल बरसा रहे हैं। और अपना सेवा-भाव प्रकट कर रहे हैं। प्रेम-सहित गुरु के चरणों की वन्दना उन करके राम ने मुनियों से आज्ञा माँगी । [ ऊपर के दोहे से ‘भये चिसोक कोक मुनि वैचा' तक साङ्ग रूपक ।] सहजहि चले सकल जग स्वामी ॐ मत मंजु बर् कुन्जर गामी चलत राम सब पुर नर नारी ® पुलक पूरि तन भए सुखारी । सारे संसार के स्वामी और सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की तरह चलने वाले १. सिंह ।