पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२८७

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क़ आया है। । २८४ मा त म । गननायक बर दायक देवा ॐ आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा के राम) वार बार बिनती सुनि मोरी ॐ करहु चाप गरुता अति थोरी हे गणों के नायक वर देने वाले देवता गणेशजी ! आज ही के लिये मैंने है आपकी सेवा की है। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर दीजिये। र देखि देखि रघुबीर त सुर मनोव धरि धीर । भरे बिलोचन प्रेम जल पुलावली सरीर ॥२५७॥ ) रामचन्द्रजी की ओर बार-बार देखकर सीता धीरज धरकर देवताओं को मना रही हैं। उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू भरे हैं और शरीर में रोमांच हो । नीकें निरखि नयन भरि सोभा ॐ पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छौभा अहह तात दारुनि हठ ठानी ॐ समुझत नहिं कछु लाभु न हानी अच्छी तरह आँख भरकर राम की शोभा को देखकर, फिर पिता के प्रण को । स्मरण करके सीता का मन क्षुब्ध हो उठा। अहो ! पिताजी ने बड़ा ही कठिन एस) हठ ठाना है। वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं। सचिव सभय सिख देइ न कोई $ बुध समाज बड़े अनुचित होई कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा ॐ कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा मन्त्रि डरते हैं, इससे कोई उन्हें सीख भी नहीं देती; बुद्धिमानों के समाज में यह बहुत ही अनुचित काम हो रहा है। कहाँ तो बज्र से भी बढ़कर कठोर धनुष है और कहाँ ये साँवले सुकुमार किशोर । हैं बिधि केहि भाँति धउँ उर धीरा ॐ सिरिस सुमन कुन बेधिअ हीरा है रामो सकल सभा के प्रति भै भोरी की अब मोहिं संभु चाप गति तोरी राम हे ब्रह्मा ! हृदय में किस भाँति धीरज धरू १ सिरस के फूल के कण से राम कहीं हीरा छेदा जाता है ? सारी सभा की बुद्धि भोली ( बावली ) हो गई है । हे । है शिवजी के धनुष ! अब तो मुझे तुम्हारा ही भरोसा है। राम निज जड़ता लोगन्ह पर डारी ॐ होहु हरु रघुपतिहि निहारी । * अति परिताप सीय मन माहीं ॐ लव निमेष जुग सय सम जाहीं १. अपेक्षा । २. हलका । राम)-- एमएम-एम)*- एमाझ-समझ8:एम)-राम-पम-28-राम -एमा रामे |