पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२८८

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तुम अपनी जड़ता लोगों पर डालकर, रामचन्द्रजी को देखकर हलके हो जाओ। इस प्रकार सीता के मन में बड़ा ही संताप हो रही है। पलक : भाँडने का एक लव भी सौ युगों के समान बीत रहा है। राम , प्रभुहि चितई पुनि चितव सहि राजत लोचन लोल'। खेलत मनसिज सीन जुग जनु विधु मंडल डौल । प्रभु रामचन्द्रजी को देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीता के चंचल एम) नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, जैसे चन्द्र-मंडलरूपी डोल में कामदेव की दो । मछलियाँ खेल रही हों । [अनुक्तविषया दस्तूत्प्रेक्षालंकार] राम गिरा लिनि मुख पंकज रोकी झी प्रगट न लाज निसा अवलोकन | लोचन जलु रह लोचन कोना ॐ जैसे परम कृपन कर सोना । | एमी वाणीरूपी भौंरी सीता के कमलरूपी सुख में वन्द है, जो लाजरूपी रात्रि को देखकर प्रकट नहीं होती है । सीता के नेत्रों का जन नेत्रों के कोने में ही रह है राम रहा है, जैसे बड़े भारी कंजूस का सोना ( कोने में ही गड़ा रह जाता है)। उनको [ उदाहरण अलंकार ] सकुची व्याकुलता बड़ि जानी ॐ धरि धीरजु प्रतीति उर आनी । तन मन बचन मोर पन साँचा छ रघुपति पद सरोज चितु राँची | सीता अपनी बढ़ी हुई व्याकुलता जानकर सकुचो गई। फिर धीरज धरकर वे हृदय में विश्वास ले आई कि यदि तन, मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है । और रामचन्द्रजी के कमल ऐसे चरणों में मेरा चित्त सचमुच अनुरक्त है, हो तो भगवानु सकल उर वासी ॐ करिहहिं मोहि रघुवर के दासी ॐ जेहि के जेहि पर सत्य सलेहू ॐ सो तेहि मिलइ न कछु संदेह है। रम्) तो सबके हृदय में बसने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ राम की दासी बनायेंगे | वरे ॐ जिसको जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे अवश्य ही मिलता है, इसमें सन्देह है। नहीं है। ॐ प्रभु तन चितइ प्रेमपन ठाना ॐ कृपानिधान राम सबु जाना । सियहि विलोकि तळेउ धनु कैसें ॐ चितव गरुड़ लघु व्यालहि जैसे न । प्रभु की ओर देखकर सीता ने प्रेम का प्रण ठान लिया । कृपा के भण्डार १. चंचल । २. भौंरी ।