जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। साधु अमृत और असाधु मदिरा के समान हैं। इन दोनों का जनक-पैदा करने वाला-संसाररूपी अगाध समुद्र एक ही है।
भल अनभल निज निज करतूती * लहत सुजस अपलोक बिभूती
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू * गरल अनल कलिमल सरि व्याधू
गुन अवगुन जानत सब कोई * जो जेहि भाव नीक तेंहि सोई
भले और बुरे मनुष्य अपनी-अपनी करनी से जगत में यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, और गंगा जी और विष, अग्नि और कलियुग के पापों की नदी (कर्मनाशा) और हिंसा करने वाले व्याध के गुण और अवगुण को सब कोई जानते हैं। पर जिसको जो भाता है, वही उसे अच्छा लगता है।
भला भलाई से शोभा पाता है और नीच नीचता से, जिस तरह अमृत की प्रशंसा अमर करने में और विष की सराहना मारने में होती है ॥५॥
[पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार]
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा * उभय अपार उदधि अवगाहा
तेंहि तें कछु गुन दोष बखाने * संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने
खलों के पाप और अवगुण और सज्जनों के गुणों की गाथाएँ (कथाएँ) दोनों अपार, अथाह समुद्र हैं; इसी से मैंने यहाँ उनके कुछ गुणों और दोषों का वर्णन किया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका संग्रह या त्याग उचित नहीं।
ब्रह्मा ने भले-बुरे सभी पैदा किये हैं, वेदों ने उनके गुण-दोष गिनाकर अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण बतलाते हैं कि ब्रह्मा का प्रपंच यह संसार-गुण और अवगुण दोनों से सना हुआ है।