पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/२९९

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। २९६ मा इब्न । हैं करने लगे। सव के हृदय में बड़ा भय है। म मन पयिताति सीय महतारी ॐ विधि अव सँवरी वात विगारी ८ भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता ॐ अरध निमेष कलप सम वीता रान सीता की माता मन में पछता रही हैं कि हाय ! विधाता ने अव बनी[ वनाई बात बिगाड़ दी। सीता ने परशुराम की स्वभाव सुना, तब तो उनको एम) आधा क्षण भी एक कल्प के समान बीतने लगा ।। हो । सभय दिलोके लोग सब जानि जाली भीरु। हृद, न हर विषालु झछु बोले श्रीरघुबीरु ॥२७० तव रामचन्द्रजी सत्र लोगों को भयभीत और सीता को डरी हुई जानकर बोले । उनके हृदय में ने कुछ हर्प था, न विषाद ।। नाथ संभु धनु अंजनिहारा ६ होइहि केउ एक दास तुम्हारा प्रायसु काह कहि किन मोही $ सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही राम ने कहा-हे नाथ ! शिव के धनुष को तोड़ने वाली आपका ही कोई एक दास होगा ? क्या आज्ञा है, मुझसे कहिये न ? यह सुनकर क्रोधी मुनि चिढ़कर बोलेसेवक सो जो करइ सेवकाई के अरि करनी करि करिअ लाई सुनहु राम जेहिं सिच' धनु तोरा ॐ सहसवाहु सम सो रिपु मोरा सेवक वह है, जो सेवा का काम करे । शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही ॐ करनी चाहिये । हे राम ! सुनो, जिसने यह शिव को धनुष तोड़ा है, वह सहस्रम) वाहु के समान मेरा शत्रु है।। ॐ सो विलगाउ' चिहाइ समाजा ॐ न तु मारे जहँहि सव राजा राम्रो सुनि सुनिवचन लपन मुसुकाने ॐ बोले परसुधरहिं अपमाने | वह इस समाज को छोड़कर अलग खड़ा हो, नहीं तो (उसके साथ) सभी । राजा मारे जायँगे । मुनि का वचन सुनकर लक्ष्मण मुसकुराये और परशुराम का * अपमान करते हुये वोले--- म् वह धनुहिं तोरीं- लरिकाई की कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाई * एहि धनु पर ममता केहि हेतु ॐ सुनि रिसाइ कह भूगुकुल केतू * १. अलग हो । २. छोड़कर।