पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३०१

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| २९८ टिमच्या . । मातु पितहि जनि सोच वसकरसि महीस किसोर। ! गरभन के अभक दलन परसु सोर अति घोर ॥ एमा अरे राजा के बालक ! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर । मेरा * फरसा गर्भ के भीतर के बच्चे का भी नाश करने वाला बड़ा भयानक है। एम) विहँसि लफ्नु बोले मृदु वानी ॐ अहो मुनीसु महा भट मानी । पुनि घुनि मोहि देखाव कुटारू ॐ चहत उड़ावनि हूँ कि पहारू के राम लक्ष्मण हँसकर कोमल वाणी से बोले–अहो, मुनीश्वर तो अपने को । है। बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे फरसा दिखला रहे हैं। फूक से पहाड़ राम उड़ाना चाहते हैं । इहाँ कुम्हड़ वतिया कोउ नाहीं ॐ जे तरजनी देखि मरि जाहीं । । देखि कुठारु सरासन वाना ॐ मैं कछु कहा सहित अभिमाना । । यहाँ कोई कुम्हड़े की बतिया ( छोटा कच्चा फल ) नहीं हैं, जो तर्जनी । उँगली को देखते ही मर जाते हैं। फरसा और घनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान-सहित कहा था। भूगुकुल समुझि जनेउ विलोकी ने जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी राने सुर महिसुर हरिजन अरु गाई ॐ हमरे कुल इन्ह पर न सुराई है आपको भृगुवंशी समझकर और आपको यज्ञोपवीत देखकर, जो कुछ आप है (राम) कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सब सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान् राम 8 के भक्त और गौ इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती ।। लामो वधे पाप अपकीरति हारे ॐ मारतहूँ पा परित्र तुम्हारे राम्। ॐ कोटि कुलिस सम वचन तुम्हारा ॐ व्यर्थ धरहु धनु वान कुठारा तुम क्योंकि इनको मारने में पाप लगता है, और इनसे हारने में अपकीर्ति होती है। इससे आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिये। करोड़ वज्र के समान तो । आपका वचन ही है । आप तो व्यर्थ ही धनुष-बाण और फरसा धारण करते हैं। होम : जो विलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर । यो

  • सुनि सरोष भृगुवंसमनि वोले गिरा गॅभीर ॥२७३॥ १. गर्भ के भीतर का बच्चा । २. पाँव ।।