पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३०४

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| लक्ष्मण ने कहा-हे मुनि ! आपके शील को कौन नहीं जानता है वह होम संसार भर में विख्यात है। आप माता और पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ॐ ही गये थे। गुरु का ऋण शेष था, जी में उसकी बड़ी चिंता है ।। राम सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा $ दिन चलि गयेउ व्याज बहू चाट्टा अव अनि व्यवहारि बोली ॐ तुरत देऊँ मैं थैली खोली एम) . उसे मानो मेरे ही मत्थे मढ़ा है। बहुत दिन हो गये; इससे व्याज भी । बहुत बढ़ गया होगा । अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइये; में तुरन्त ये ही थैली खोलकर दे दें ।। सुनि कटु वचन कुटार सुधारा ॐ हाय हाय सर्व सभा पुकारा । भृगुचर परसु देखावहु मोही ॐ विप्न विचार वचउ नृप द्रोही लक्ष्मण के कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने फरसा उठाया। सारी सभा के हाय ! हाय ! करके पुकार उठी। लक्ष्मण ने कहा- हे भृगुश्रेष्ठ ! आप मुझे से फरसा दिखाते हैं, पर हे राजाओं के शत्रु ! आप अभी तक ब्राह्मण समझे जाकर । बच रहे हैं। न) मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े ॐ द्विज देवता बरहीं के वादे ॐ अनुचित कहि सव लोग पुकारे ॐ रघुपति सैनाहिं लपल नेवारे आपको कभी युद्ध में वीर योद्धा नहीं मिले । ब्राह्मण और देवता घर ही में बड़े हैं । ( यह सुनकर ) सब लोग पुकार उठे--अनुचित है, अनुचित है । तर राम राम ने लक्ष्मण को इशारे से रोका ।।

  • लषन उतर आहुति सरिस भृगुवर कोप झसानु।
  • बढ़त देखि जल सस बचन बोले रघुकुल भालु।२७६।। । | लक्ष्मण का उत्तर आहुति के समान था और परशुराम को क्रोध अग्नि में के के समान । उसे बढ़ते देखकर सूर्यकुल के सूर्य रामचन्द्र जल के समान (शीतल) (राम) वचन बोलेहै नार्थ करहु वालक पर छोहू ॐ सूध दूधमुत्र करिश्च न कोई राम जौं १ प्रभु प्रभाउ कछ जाना ॐ तौ कि वरावरि करत अयाना । * हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिये। इस सीधे और दुधमुंहे बच्चे पर क्रोध

१. इशारे से । )