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बरं और बालक का एक स्वभाव है, संतजन इनको कभी दोष नहीं लगाते । उसने ( लक्ष्मण ने ), कुछ काम नहीं बिगाड़ा है; हे नाथ ! आपका ॐ अपराधी तो मैं हूँ। म) कृपा कोषु बँधव गोसाईं ॐ मो पर करिअ दास की नाई ॐ कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई ॐ मुनि नायक सोइ करौं उपाई एम हे स्वामी ! मुझे दास की तरह समझकर कृपा, क्रोध, वध और बन्धन हैं जो कुछ करना हो, मुझ पर कीजिये । जिस तरह क्रोध जाय, वह उपाय शीघ्र राम) बताइये । हे मुनिराज ! मैं वही उपाय करू । । कह सुनि राम जाय रिस कैसे ॐ अजहुँ अनुज तव चितव अनैसे है । एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा ॐ तो मैं काह कोषु करि कीन्हा | मुनि ने कहा—हे राम ! क्रोध कैसे शान्त हो, अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसके कंठ पर मैंने फरसा न चलाया तो, मैंने क्रोध करके * किया ही क्या है । गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर। माम ' परसुअछत' देखउँ जित बैरी भूप किसोर ॥२७९॥ पानी मेरे फरसे की भयानक करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियाँ गर्भ गिरा देती हैं। उसी फरसे के रहते हुये मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीता हुआ देख रहा हूँ। वहइ न हाथु दुइ रिस छाती ॐ भा कुठार कुण्ठित नृपघाती है। भयेउ वाम बिधि फिरेउ सुभाऊ ॐ मोरे हृदय कृपा कसि काऊ । सम) हाथ नहीं चलता, छाती क्रोध से जल रही है, राजाओं का वध करने एमा ॐ वाला यह फरसा कुण्ठित हो गया । विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो मेरे हृदय में किसी के लिये कृपा कैसी ? है आजु दया दुखु दुसह सहावा ॐ सुनि सौमित्रि’ बहुरि सिर नावा रामो बाउ: कृपा मूरति अनुकूला ॐ चोलत वचन झरत जनु फूला आज दया मुझसे यह कठिनता से सहने योग्य दुःख सहा रही है । यह * सुनकर लक्ष्मण ने फिर प्रणाम किया, और कहा- वाह वा ! आपकी कृपा की । धू मूर्ति बहुत सुन्दर है, वचन बोलते हैं, तो मालूम होता है कि फूल झड़ रहे हैं। १. होते हुये। २. लक्ष्मण ।