पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३०८

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ॐ जौं पै कृपा जहिं सुलि गाता ॐ क्रोध भए तनु राखु विधाता राम देखु जनक हटि वालक एहू है कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू हे मुनि ! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जा रहा है, तो क्रोध होने । उस पर तो ब्रह्मा ही आपके शरीर की रक्षा करें । परशुराम ने कहा--जनक ! देखो, छ यह मूर्ख वालक हठ करके यमपुर घर करना चाहता है। या वेगि करहुँ किन आँखिन्ह ओटा $ देखत छोट खोट नृपदोदा । विहँसे लषन कहा सुनि पाहीं ॐ यू दे ऑछि कतहुँ कोउ नाहीं इसे शीघ्र ही आँखों की ओझल क्यों नहीं करते ? यह राजपुत्र देखने ही में छोटा है पर है बड़ा खोटा । लक्ष्मण हँसे और उन्होंने मुनि से कहा---ग्व है मूंद लीजिये, तो कहीं कोई नहीं ।। य) ॐ परसुराम तब रास प्रति वोले उर अति झोछु । १६३° संलु सरासलु तोरि सठ कसि हसार प्रबोधु ॥२८॥ तब हृदय में अत्यन्त क्रोध भरे हुये परशुराम राम से बोले--अरे शठ ! तू शिव का धनुष तोड़कर उलटा मुझी को ज्ञान सिखाता है। बंधु कहइ कटु संमत तोरे ॐ तू छल विनय करसि कर जोर करु परितोषु मोर संग्रामा ॐ नाहिं त छाँडु कहाउछ रामा | तेरी ही सम्मति से तेरा भाई कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ | राम जोड़कर विनय करता है । या तो युद्ध करके मुझे संतुष्ट कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे। छलु तजि कहि समरु सिवद्रोही ॐ वंधु सहित न त माऊँ तोही भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ ॐ सन, सुसुकाहिं रामु सिर नाएँ | अरे शिव-द्रोही ! या तो छल छोड़कर युद्ध कर, नहीं तो भाई-सहित ६ तुझे मार डालूंगा । इस प्रकार परशुराम फरसा उठाये बक-झक रहे हैं और राम सिर झुकाये मन ही मन मुसकुरा रहे हैं। गुनह' लपन कर हम पर रो५ । कतहुँ सुधाइहु ते बड़े दाए ३ टेढ़ जानि संका सत्र काहू ३ वक्र चंद्रसहि ग्रसइ न राहू, (0) राम मन ही मन सोचने लगे-अपराध तो लक्ष्मण का है और क्रोध सुरू १. गुनाह, अपराध !