पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३१०

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। - देव एकु गुनु धनुष हमारे ॐ नव गुन परम पुनीत तुम्हारे प्रकार हम तुम्ह सन हारे को छमहु विप्न अपराध हमारे हे देव ! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके पास परम पवित्र न गुण' हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हुये हैं। हे ब्राह्मण ! हमारे अपराध | को क्षमा कीजिये । । । बार बार लुनि बिबर हा रस सन राम ।। सो बोले भृशुपति सरुष हस त बन्धु सम वास ।२८२। न | राम ने बार-बार परशुराम को ‘मुनि’ और ‘विप्रवर' कही। तब परशुराम क्रोध की हँसी हँसकर बोले--तू भी अपने भाई के समान ही कुटिल है। निपटहिं द्विजकरि जानहि सोही ॐ मैं जस विष सुनावउँ तोही * चाप सु वा सर आहुति जालू की झोप मोर अति घोर कृसानू । तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है ? मैं जैसा ब्राह्मण हैं, तुझे सुनाता। ॐ हूँ ! तू मेरे धनुष को श्रुवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यंत भयानक अग्नि जान। ॐ समिध सेन चतुरंग सुहाई ॐ महा महीप भये पसु भाई रामो मैं यहि परसु काटि बलि दीन्हे ॐ समरजग्य जग कोटिन्ह कीन्हे के चतुरंगिणी सेना सुन्दर यज्ञ की लकड़ियाँ हैं। और बड़े-बड़े राजा लोग राम) उसमें आकर बलि के पशु हुये, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। मैंने संसार में ऐसे करोड़ों रण-यज्ञ किये हैं। या मोर प्रभाउ बिदित, नहिं तोरें ॐ वोलसि निदरि विप्र के भोरे - को भेजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा ॐ अहमिति मनहुँ जीति जगु टाढा तुझे मेरा प्रभाव नहीं मालूम है, इसीसे तू ब्राह्मण के धोखे में मेरा निरादर करके बोलता है। धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है । अहङ्कार ऐसा है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है। | राम राम कहा सुनि कहहु विचारी ॐ रिस अति वड़ि लधु बृक हमारी से । छुवतहिं टूट पिनाक पुराना है मैं केहि हेतु करा अभिमाना । १. नौ गुण-शर्म, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान र प्रालिला ।