पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३१३

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३१० अचाट छ । ॐ देवन्ह दीन्हीं दुंदुभी प्रभु पर बरषहिं फूल। हरषे पुर नर नारि सब मिटा सोह मय सूल ॥२५॥ ॐ देवताओं ने नगाड़े बजाये । वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे । जनकपुर * के पुरुष-स्त्री सब हर्षित हो गये और अज्ञान से उत्पन्न उनकी पीड़ा मिट गई। अति गहगहे बाजने बाजे ॐ सबहिं मनोहर मंगल साजे होम जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं ॐ करहिं गान कल कोकिल बयनी है माम बड़े ज़ोर से बाजे बजने लगे। सबने मनोहर मंगल साज साजे । सुन्दर मुँह बाली, सुन्दर नेत्रों वाली और कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ कुण्ड मा) की कुण्ड मिलकर सुन्दर गान करने लगीं। सुखु विदेह कर बरनि न जाई छ जनम दरिद्र मनहुँ निधि पाई । ॐ विगत त्रास भइ सीय सुखारी ॐ जनु बिधु उदयँ चकोर कुमारी के | जनक के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता है मानो जन्म से दरिद्र ने के खज़ाना पा लिया हो । सीता का भय जाता रहा । वे ऐसी सुखी हुई, जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है ।। जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा ॐ प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा बैं । सोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाई ॐ अब जो उचित सो कहिअ गोसाई राम्रो | जनक ने विश्वामित्र को प्रणाम किया और कहा--) आप ही की कृपा 2 राम से राम ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया । हे स्वामी ! राम) ॐ अब जो उचित हो, सो कहिये । म कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना क इहा विवाहु चाप आधीना से टूटतहीं धनु भयेउ विवाहू ॐ सुर नर नाग बिदित सव काहू . मुनि ने कहा- हे बुद्धिमान राजा ! सुनो। विवाह का होना तो धनुष के के अधीन था । धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, नर और नाग सबको यह मालूम है। एम) । तदांपे जाई तुम्हें कोरड अब जथा बंस ब्यवहारु ।। है बूझि बिग्न कुल बृद्ध गुरु बैद विदित आचारु॥२८६॥ १. खजाना ।