पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३२

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सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद विधि कीन्ह ।
ससि पोषक सोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥७(२)॥ 

महीने के दो पखवारों में उजाला और अन्धेरा समान ही होता है; पर ब्रह्मा ने इनके नाम में भेद (एक को कृष्ण अर्थात् काला और दूसरे को शुक्ल अर्थात् उजला ) कर दिया है। एक को चन्द्रमा का बढ़ाने वाला और दूसरे को के उसका घटाने वाला समझकर संसार के लोगों ने एक को सुयश और दूसरे को । अपयश दे दिया है।

जड़ चेतन जग जीव जत' सकल राममय जानि ।
बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥७(३)॥

जगत् में जितने जड़ और चेतन प्राणी हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों को सदा दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्व ।
बंदउँ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अब सर्व ।।७(४)॥

मैं देवतादैत्य, मनुष्यसर्षपक्षी, प्रेतपितर, गन्धर्वकिन्नर और निशाचर सबको प्रणाम करता हूँ । अब सब मुझ पर कृपा करो ।

आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ॥
सीय राममय सब जग जानी । करौं प्रनाम जोरि जुग पानी ॥

चौरासी लाख योनि वाले चार प्रकार के (स्वेदज, अंडज, उद्भिज, जरायुज) जीव जल, घरती और आकाश में रहते हैं । उनको अर्थात सारे जगत को सीताराममय (सीताराम का रूप) जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं।

जानि कृपा कर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाँडि छ्ल छोहु ॥
निज बुधिवल भरोस मोहि नाहीं । तातें विनय करौं सब पाहीं ॥

मुझे अपना सेवक समझकर कृपा करके छल को छोड़कर सब मिलकर छोह कीजिये । मुझे अपनी बुद्धि का भरोसा नहीं है, इसलिये निकट विनती करता हूँ।

१. जितने ।