पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३३

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अभिजन के

करन चहौं रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥
सूझ न एकौ अङ्ग उपाऊ ॐ मन मति रङ्क मनोरथ राऊ ॥

मैं रामचन्द्रजी के गुणों की कथा कहना चाहता हूँ; परन्तु मेरी बुद्धि छोटी-सी है और रामचरित अथाह है। (इस काम के लिये ) मुझे उपाय का एक भी अङ्ग नहीं सूझता । मेरा मन तो बुद्धि का दरिद्र है पर मनोरथ राजा जैसा है। [दृष्टान्त अलंकार ]

मति अति नीचि ऊँचि रुचि आछी ॐ चहिय अमिय जग जुरै न छाछी ॥ 
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई ॐ सुनिहहिं वालवचन मन लाई ॥ 

मेरी बुद्धि अति नीच है और इच्छा बड़ी ऊँची है, इच्छा तो अमृत के पाने की है, पर संसार में मट्ठा भी नहीं जुड़ता । सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मुझ बालक के वचनों को मन लगाकर सुनेंगे।

जौं बालक कह तोतरि वाता ॐ सुनहिं मुदितमन पितु अरु माता ॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुविचारी ॐ जे पर दूषन भूषन धारी ॥

जैसे बालक तोतली बातें कहता है, तो उसके माता-पिता उसे प्रसन्न-मन से सुनते हैं। जो लोग क्रूर हैं, खोटे हैं, बुरे विचार के हैं और जो दूसरों के दूषणों ही को अपना भूषण समझकर धारण करते हैं, वे हँसेंगे । [ अनुमान प्रमाण अलंकार ] ।

निज कवित्त केहि लाग न नीका ॐ सरस होउ अथवा अति फीका ॥ ॐ
जे परभनिति सुनत हरषाहीं ॐ ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ॥

रसीली हो या बहुत फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती है जो ॐ दूसरों की कविता को सुनकर प्रसन्न होते हैं, ऐसे श्रेष्ठ मनुष्य संसार में बहुत नहीं हैं।

जग बहु नर सर सरि सम भाई ॐ जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई ॥
सज्जन सुकृत सिंधु सम कोई ॐ देखि पूर विधु बाढ़ई जोई ॥

भाई ! संसार में नदी और तालाब के समान मनुष्य बहुत हैं, जो जल ॐ पाकर अपनी बाढ़ से बढ़ जाते हैं, अर्थात अपनी बढ़ती से प्रसन्न होने वाले बहुत हैं, लेकिन समुद्र के समान सज्जन बिरले ही हैं, जो चन्द्रमा की (पराई) होम) बढ़ती देखकर उमड़ते हैं। राम-राम-राम-राम)-राम-राम-राम-राम-राम-28- मामा - राम)