पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३३२

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और उन्हें राजा दशरथ का अतिथि-सत्कार करने को भेजी।

  • सिधि सबसिय आयसु अनि गईं जहाँ जनवास।। ॐ ६ लियें संपदा सकल सुख सुरपुर भोग विलास।३०६॥ ॐ

सीता की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ, जहाँ जनवासा था, वहाँ इन्द्रपुरी के सारे भोग-विलास और सब सुख और सम्पदा लिये हुए गई। निज निज वास बिलोकि बराती ॐ सुरसुख सकल सुलभ सब भाँती रा) विभव भेद कछु कोउ न जाना $ सकल जनक कर करहिं वखाना राम) बरातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे । जहाँ देवताओं के सब राम) सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया । इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद किसी ने जान नहीं पाया । सब जनकजी की प्रशंसा कर रहे हैं। रानो सिय महिमा रघुनायक जानीं ॐ हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी हैं पितु आगमन सुनत दोउ भाई ॐ हृदयँ न अति आनंदु अमाई राम ने सीता की महिमा जानी । वे सीता के प्रेम को पहचानकर हृदय में एम) आनन्दित हुये। पिता (दशरथजी ) के आने का समाचार सुनते ही दोनों भाइयों ) के हृदय में महान् आनंद समाता ही नहीं था। । सकुचन्ह कहि ल सकत गुरु पाहीं ॐ पितु दरसन लालचु मन माहीं । विस्वामित्र विनय बड़ि देखी ॐ उपजा उर संतोष बिसेषी संकोचवश वे गुरु से कह नहीं सकते थे, पर मन में पिता के दर्शनों की * लालसा थी । विश्वामित्र ने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बड़ा । * संतोष उत्पन्न हुआ। हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाये ॐ पुलक अंग अंबक जलं छाये म चले जहाँ दसरथु जनवासे ® मनहूँ सरोबर तकेउ पियासे ॐ हर्षित होकर उन्होंने दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया । उनका शरीर पुलकित हो गया और आँखों में आँसू आ गये। वे वहाँ चले, जहाँ ॐ दशरथजी का जनवासा था। मानो सरोवर प्यासे की ओर चला। पुणे : भूप बिलोके जबहिं अनि आक्त सुतन्ह समेत । वाम - उठेउ हरषि सुख सिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥३०॥ १. सुनकर । २. भरना, समाना । ३. आँख ।। 15