पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३५२

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| जे परसि मुनि बनिता लही गति रही जो पातकसई । मकरंटु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर वरनई ॥ ए करि मधुप मुनि मन जोगि जनजे सेइ अभिसत गति ल हैं। सनी ते पद पखारत भाग्य जन जन जयजय सव कहैं । जिसे स्पर्श करके गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने परम गति पाई, जो पापमयी थी; जिन चरण-कमलों का मकरंद रस ( गंगाजी ) शिवजी सिर पर घरते हैं, जिसे देवता पवित्रता की सीमा बताते हैं, मुनि और योगीजन अपने * मन को जिन चरण-कमल का भौंरा बनाकर तथा सेवन कर मनोवाञ्छित गति प्राप्त करते हैं, उन्हीं चरणों को भाग्य के पात्र जनक जी धो रहे हैं, यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे हैं। बर कुअँरि करतल जोरि साखोच्चारु' दोउ कुलशुर करें । राम्रो भयो पानिगहन विलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरें पानी | सुखमूल दूलह देखि दम्पति पुलक तलु हुलस्यौ हियो । । झरि लोक बेद बिधालु कन्या दाजु ए एन कियो । दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर शाखोचार ॐ करने लगे । पाणि-ग्रहण की विधि पूर्ण हुई देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और राम) सुनि आनन्द में भर गये । सुख के मूल दूलह को देखकर राजा-रानी का शरीर तुम ॐ पुलकित हो गया और हृदय आनन्द से उमड़ आया। राजाओं के अलङ्कारराम स्वरूप महाराज जनकजी ने लोक और वेद की विधि करके कन्यादान किया। । हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई। । तिमि जनक रामहि सियसमरपी बिस्व कल कीरति नई ॥ सुमे क्यौं करै बिनय विदेड कियो विदेह सूरति साँवरी । सुने करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होल लागी भाँवरी। * : हिमाचल ने जैसे शिवजी को पार्वती दी थी और समुद्र ने विप्णु को लक्ष्मी ती दी थी, उसी प्रकार जनकजी ने राम को सीता समर्पित की। इससे संसार में। १. चंशावली वर्णन । २. लक्ष्मी ।