पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३५९

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। ३५६ छ होन. . छै सुन्दर भृकुटि मनोहर नासा के भाल तिलकु रुचिरता निवासा के एमो सोहत मौरु मनोहर माथे ॐ सङ्गलमय सुकुता मनि गाथै उम्म) . भौंहें सुन्दर और नाक मनोहर है। माथे पर तिलक तो सुन्दरता को घर है गुम ही है। मोती और रत्नों से हैंथा हुआ कल्याणमय मनोहर मौर मस्तक पर गुम के शोभित है। छंद-माथे सहा मनि सौर मंजुल अङ्क सब चित चोरहीं। उम् म पुर नारि सुर सुन्दरी बरहिं बिलोकि सब तिन तोरहीं ॥ लम मुनि बसन भूषन बार रति करहिं मंगल गावहीं । सुर सुमन बरसहिं सूत मागध बन्दि सुजसु सुनावहीं॥ राम सुन्दर मौर में बहुमूल्य मणियाँ गुंथी हुई हैं। सारा अंग चित्त को चुराये रामा लेता है। नगर की स्त्रियाँ और देवताओं की सब सुन्दरियाँ दूलह को देखकर हैं यो तिनके तोड़ रही हैं। वे मणि, वस्त्र और आभूषण न्योछावर करके आरती उतार राम) रही हैं। देवता फूल बरसा रहे हैं और सूत, मागध और बन्दीजन ‘सुयश सुना ॐ कोहबराह ने कुँअर कँअरि सुसिलिन्ह सुख पाइकै। कैं अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मङ्गल गाइ कै॥ एम लहौरि' गौरि सिखाव रामहिं सीय सन् सारद कहैं। माना निवासु हास बिलास रसबसे जनम को फल सब लहैं । |. सुहागिनी स्त्रियाँ सुख पाकर राजकुमारों और राजकुमारियों को कोहबर में * ले आकर बड़ी प्रीति से मंगल-गीत गा-गाकर लौकिक रीति करने लगीं । राम । को पार्वतीजी तथा सीता को सरस्वती लहकौर ( परस्पर ग्रास देना) सिखाती हैं। * रनिवास हास-विलास के अनिन्दं में मग्न है। सभी जन्म का परम फल प्राप्त ) * कर रही हैं। म निज पानि मनि महुँ देखि प्रतिमूरति सुरूपनिधान की। एम । चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी ॥ १. वर-बघू का परस्पर ग्रास देना।.. .. ।