पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३६०

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छात्न-

  • ३५७ हैं कौतुक बिनोद प्रमोढुं प्रेलु न जाइ कहि जानहिं अली । खु बर कुअरि सुन्दरि सकल सखी लिवाइ जलवाहिं चली। ए

अपने हाथ की मणियों में सुन्दर रूप के भंडार (रामचन्द्रजी) की परवाही * देखती हुई जानकी दर्शन में वियोग होने के भय से बहुरूपी लता को और दृष्टि मी को हिलाती-डुलाती नहीं हैं। उस समय के खेल, हँसी-दिल्ली, हर्ष और प्रेम का वर्णन नहीं हो सकता, उसे सखियाँ ही जानती हैं। इसके बाद वर-वधुओं म को सब सुन्दर सखियाँ जनवासे को लिवाकर चलीं । । तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर न आनंदु महा। चिरजिअ जोरी चारु चारिउ सुदित मन सवहीं कहा। जोगीन्द्र सिद्ध सुनीस देव बिलोकि प्रलु दुन्दुभि हनी । चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जयभनी । | उस समय नगर और आकाश में जहाँ सुनिये वहीं आशीर्वाद की ध्वनि मी सुनाई दे रही है और बड़ा आनन्द छा रहा है। सभी ने प्रसन्न मन से कहा कि के चारों सुन्दर जोड़ियाँ चिरंजीवी हों। योगीश्वर, सिद्ध, मुनिराज और देवताओं ने प्रभु रामचन्द्रजी को देखकर नगाड़े बजाये और हर्षित हो और फूलों की वर्षा करके तथा बारम्बार ‘जय हो, जय हो, जय हो', कहते हुये अपने-अपने लोक एम) को चले। ॐ १ सहित बधूटिन्ह कुँअर सब तब आये पितु पास। 18 सोभा मङ्गल सोद भरि उसउ जलु जनवास।३२७ । तब सब कुँवर बहुओं-सहित पिता के पास आये। ऐसा जान पड़ता है, और हैं मानो शोभा, मंगल और आनन्द से भरकर जनवासा उमड़ पड़ा हो । राम पुनि जेवनार भई बहु भाँती ॐ पठ्ये जनक बोलाई चराती परत पाँवड़े बसन अनूपा ॐ सुतन्ह समेत गबन किय भूपा * फिर बहुत प्रकार का व्यञ्जन तैयार हुआ । जनक ने बरातियों को बुला । को भेजा। पुत्रों-सहित राजा दशरथजी ने गमन किया । अनुपम वस्त्रों के पाँबड़े के पड़ते थे।