पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३६४

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ॐ पाइ असीस महीसु अनन्दा ६ लिये वोलि पुलि जाचक वृन्दा कनक बसन मनि हय गय स्यन्दन ॐ दिये वृझि रुचि रविकुल नन्दन म ब्राह्मणों से आशीर्वाद पाकर राजा आनन्दित हुये। फिर उन्होंने वाचक- । राम वृन्द को बुलवा लिया और सबको उनकी रुचि पूछकर सोना, वस्त्र, मणि, बोड़ा, । हाथी और रथ सूर्यकुल को आनंदित करने वाले दशरथजी ने दिये । । रामू चले पढ़त गावत गुन गाथा ॐ जय जय जय दिनकर कुल नाथा एहि विधि राम विवाह उछाहू सकई न वरनि सहस सुख जाहू वे सब विरद पढ़ते और गुणों की गाथा गाते हुये और सूर्यकुल के स्वामी की जय हो, जय हो, जय हो' कहते हुये चले। इस प्रकार राम के विवाह को उत्सव हुआ, जिसे जिन्हें सहस्र मुख हैं वे रोप भी नहीं कह सकते । बार बार कोसिक चल सीसु लाइ ह राङ ।। यह सवसुख मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ३३१ राजा बार-बार विश्वामित्रजी के चरणों में सिर नवाकर कहते हैंमुनिराज ! यह सब सुख आप ही के कृपा-कटाक्ष का प्रसाद है। । जनक सनेह सील करतूती ॐ नृप सव राति सराहत बीती म दिन उठि विदा अवधपति माँगा ॐ राखहिं जनक सहित अनुरागी जनकजी के स्नेह, शील और करनी की सराहना करने में राजा की सारी रामो रात.वीत जाती है । सवेरे उठकर रोज़ अयोध्यानरेश बिदा माँगते हैं; पर जनकजी में ॐ उन्हें प्रेम से रख लेते हैं। लामो नित नूतन आदरु अधिकाई के दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई के नित नव नगर अनन्द उछाहू 6 दसरथ गवनु सोहाइ न काहू | आदर नित्य नया बढ़ता जाता है। प्रतिदिन सहस्रों प्रकार से मेहमानी । होती है। नगर में नित्य ही नवीन आनन्द और उत्साह रहता है, दशरथजी का ए जाना किसी को नहीं सुहाता ।। वहुत दिवस बीते एहि भाँती ॐ जनु सनेह रज्जु' बँधे वराती कौसिक सतानन्द तव जाई ६ कहा विदेह नृपहि समुझाई पाठान्तर नृप सबै भाँति सराह विभूति ।। १. रस्सी ।