पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३६८

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| | - बाल-काण्ड

  • ३६५ के लिये इनकी मूर्ति को मणि बना लो । इस प्रकार सत्र को नेत्रों का फल देते। हुये सब कुँवर राजमहल में गये ।। 5 रूप सिन्धुसब बल्धुलखि हरषि उठेउ रनिवासु।।

करहिं निछावर आरती महा मुदित सन सासु।३३५। । राम रूप के समुद्र सेब भाइयों को देखकर रनिवास हर्षित हो उठा। सासुये ॐ अत्यन्त हर्षित मन से आरती और न्योछावर करती हैं। राम्रो देखि राम छवि अति अनुरागी को प्रेम विवस पुनि पुनि पद लागी राम ॐ रही न लाज प्रीति उर छाई की सहज सनेहु वृरनि झिमि जाई । | रामचन्द्रजी की छवि देखकर वे प्रेम में अत्यन्त मग्न हो गई और वे प्रीति के वश बार-बार चरणों में लग रही हैं। हृदय में प्रीति छा गई है, इससे लज्जा नहीं रह गई। उनके स्वाभाविक स्नेह का वर्णन किस तरह किया जा सकता है ? होम, भाइन्ह सहित उवटि' अन्हवाये को छरस असन अति हेतु जेवाये बोले रामु सुअवसर जानी की सील सनेह , सकुवमय वानी। राम) उन्होंने भाइयों-सहित रामचन्द्रजी को उवटन करके स्नान कराया और उन है बड़ी प्रीति से घट्स भोजन कराया | सुअवसर जानकर रामचन्द्रजी शील, स्नेह । और संकोच-भरी वाणी बोले--- । राउ अवधपुर चहत सिधाये ॐ विदा होन हम इहाँ पठाये । मातु मुदित मन आयसु देहू ॐ वालक जानि कर नित नेहू। महाराज अयोध्यापुरी को चलना चाहते हैं, उन्होंने हमें विदा होने के के लिये यहाँ भेजा है। हे माता ! प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिये और मुझे पुत्र जान म) कर सदा स्नेह बनाये रखना। हैं सुनत वचन विलखेड रनिवासू $ वोलि न सकहिं प्रेम बस सासु । एम) हृदय लगाइ कुअरि सब लीन्हीं पतिन्ह सौषि विनती अति कीन्हीं उन इन बचनों को सुनते ही रनिवास उदास हो गया । सासुयें प्रेम-वश बोल नहीं सकती हैं। उन्होंने सब पुत्रियों को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों । को सौंपकर बहुत विनती की। क . १. उबटन लगाकर ।