पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३७२

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राजा आनन्दित हुए । गणेशजी का स्मरण करके उन्होंने प्रस्थान किया। नाना प्रकार के मंगलों के मूल अनेकों शकुन हुये। हो - सुर प्रसून बरषहिं हरषि करहिं अपछरा गान। sale चले अवधपति अवधपुर सुदित वजाइ निसान॥३३९ | देवता प्रसन्न होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सरायें गाने कर रही हैं। ॐ अयोध्यानरेश आनन्द-पूर्वक नगाड़े बजाकर अयोध्यापुरी को चले । एम् नृप करि विनय महाजन फेरे ॐ सादर सकल माँगने' टेरे ॐ भूपन वसन वाजि गज दीन्हे की प्रेम पोषि ठाढ़े सव कीन्हे | राजा दशरथजी ने विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर पूर्वक सब मङ्गनों को बुलवाया। उन्हें गहने, कपड़े, घोड़े, हाथी दिये और प्रेम के से सबको पोषण करके खड़ा किया। म) चार वार बिरिदावलि भाखी ॐ फिरे सकल रामहिं उर राखी तीन बहुरि वहुरि कोसलपति कहहीं ॐ जनक प्रेम बस फिरन ने चहहीं है रामे वे सब बारम्बार वंश की कीर्ति का बखान कर और रामचन्द्रजी को हृदय राना में रखकर लौटे। अयोध्या-नरेश फिर-फिर लौटने को कहते हैं, पर प्रेम के अधीन हो हुए जनकजी लौटना नहीं चाहते हैं पुनि कह भूपति वचन सुहाये ॐ फिरिअ महीप दूरि वड़ि आये । राउ बहोरि उतरि भये ठाढ़े छ प्रेम प्रवाह विलोचन वाढ़े । फिर राजा दशरथ ने सुहावने वचन कहे-हे राजन् ! बहुत दूर आ गये, अब लौटिये। फिर अयोध्या-नरेश रथ से उतरकर भूमि पर खड़े हो गये । उनकी आँखों में प्रेम का प्रवाह बढ़ आया । कैं तव विदेह वोले कर जोरी ॐ वचन सनेह सुधा जनु चोरी' करउँ कवन विधि विनय वनाई की महाराज मोहि दीन्हि वड़ाई । तब जनकजी हाथ जोड़कर मानो स्नेहरूपी अमृत में डुबोकर वचन बोले-हे महाराज ! मैं किस तरह बनाकर विनती करू ? आपने मुझे बड़ी |

  • वड़ाई दी है।

१. मंगन, मॅगते । २. डुबोकर ।