पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३७४

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| #, बाल- इ : * ३७९ हैं। वे ही सम्पूर्ण सुख के मूल (आप ) मेरे नेत्रों के विषय हुए। सच है, राम ईश्वर के अनुकूल होने पर संसार में जीवों को सब कुछ सुलभ हो जाता है। सभी ॐ सवहिं भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई निज जन जानि लीन्ह अपनाई हैं। राम्रो होहिं सहस दस सारद सेपा ॐ करहिं कलप कोटिक भरि लेखा राम | आपने मुझे सभी प्रकार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना से लिया । यदि दस हज़ार सरस्वती और शेष हों और करोड़ों कल्पों तक गणना में करते रहें, । मोर भाग्य राउर' गुन गाथा $ कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा । मैं कछु कहहुँ एकु वल मोरे ॐ तुम्ह रीझहु सनेहु सुटि थोरे तो भी हे रघुनाथ ! मेरा सौभाग्य और आपके गुणों की कथा वे कहकर समाप्त नहीं कर सकते । मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह अपने इस एक ही वेल पर कि आप बहुत थोड़े भी सच्चे प्रेम से प्रसन्न हो जाते हैं। म बार बार माँगउँ कर जोरे ॐ मन परिहरइ चरन जनि भोरे ॐ सुनि बर वचन प्रेम जनु पोषे ॐ पूरनकाम रामु परितोपे हो | राम्) मैं बार-बार हाथ जोड़कर यह माँगता हूँ कि मेरा मन आपके चरणों को ॐ भूलकर भी न छोड़े। जनकजी के श्रेष्ठ वचन जो मानो प्रेम से पोषित थे, सुन| कर पूर्णकाम रामचन्द्रजी सन्तुष्ट हुए। करि बर विनय ससुर सनमाने ॐ पितु कौसिक वसिष्ठ सम जाने विनती वहुरि भरत सन कीन्ही ॐ मिलि सप्रेम पुनि आसिप दीन्ही रामचन्द्रजी ने सुन्दर विनती करके ससुर को सम्मानित किया और उन्हें के पिता दशरथजी, गुरु विश्वामित्रजी और कुलगुरु वशिष्ठजी के समान जाना । जनकजी ने भरत से विनती और प्रीति-पूर्वक मिलकर फिर उन्हें आशीर्वाद ॐ दियो । हो । मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्ह असीस सहीस ।। | - भये परसपर प्रेस बस फिरि फिरि लावहिं सीस।३४२ फिर लक्ष्मण और शत्रुघ्न से मिलकर राजा ने उन्हें आशीर्वाद दिया । वे एन | परस्पर प्रेम के वश होकर बार-बार सिर नवाने लगे। हैं १. आपके । ३. भूलकर भी ।