पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३७९

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है दुन्दुभि धुनि घन गरजनि घोरा ॐ जाचक चातक दादुर मोरा ॐ एम) सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी ॐ सुखीं सकल सस' पुर नर नारी राम | नगारे की ध्वनि ही बादलों का घोर गर्जन है और मंगन लोग पपीहा, एम) मेंढक और मोर हैं। देवता शुद्ध सुगन्धित जल बरसा रहे हैं, जिससे खेतीरूपी राम्रो । नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं। समउ जानि गुर आयसु दीन्हा ॐ पुर प्रवेसु रघुकुल मनि कीन्हा सुमिरि सम्भु गिरिजा गनराजा ॐ सुदित महीपति सहित समाजा । | प्रवेश का मुहूर्त जानकर गुरुजी ने आज्ञा दी, तब रघुकुलं-मणि महाराज दशरथ ने नगर में प्रवेश किया । शिव, पार्वती और गणेशजी का स्मरण करके महाराज समाज-सहित आनंदित हो रहे हैं। । होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुन्दुभी बजाई। हूँ ! बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मङ्गल गाइ।३४७॥ ॐ शकुन हो रहे हैं, देवता दुन्दुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओं ए की स्त्रियाँ प्रसन्न होकर सुन्दर मंगल-गीत गा-गाकर नाच रही हैं। मागध सूत बन्दि नट नागर ॐ गावहिं ज़स तिहुँ लोक उजागर जय धुनि विमल बेद बर वानी ॐ दस दिसि सुनिय सुमंग़लं सानी मागध, सूत, बन्दीजन और चतुर नर तीनों लोकों में उजागर रामचन्द्रजी ॐ म का यश गा रहे हैं। जय-ध्वनि तथा सुन्दर संगल से सनी हुई वेद की निर्मल खि श्रेष्ठ वाणी दसों दिशाओं में सुनाई पड़ रही है। विपुल बाजने बाजन लागे ॐ नभ सुर नगर लोग अनुरागे ॐ वने बराती, बरनि न जाहीं ॐ महा मुदित मन सुख न समाहीं । । बहुत-से बाजे बजने लगे। आकाश में देव्रता और नगर में लोग प्रेम में । मस्त हैं। बराती ऐसे वने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता; परम आनं- * दित हैं; सुख उनके मन में समाता नहीं है। * पुरवासिन्ह तंव राउ जोहारे ॐ देखत रामहिं भये सुंखारे कुरहिं निछावरि मनिगन चीरा ॐ चारि विलोचन पुलक सरीरा के । तब पुरवासियों ने राजा को प्रणाम किया। रामचन्द्रजी को देखते ही वे मो. । १. शस्य, खेती ।।