पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/३८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

३७८ : fd अन्न हैंदेखि मनोहर चारिउ जोरी के सारद -उपमा सकल ढूँढोरीं ॐ राम देत न बनइ निपट लघु लागी ॐ एकटक रहीं रूप अनुराग चारों मनोहर जोड़ियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को ढूंढ़ र डाला; पर कोई उपमा देते न बनी, क्योंकि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान एम) पड़ीं। तब वह भी रूप में अनुरक्त होकर टकटकी लगाकर देखती रह गईं। पुणे - निगम' नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत। को रामो - बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लेवाइ निकेत॥ ऐसे वेद की विधि और कुल की रीति करके अयं तथा पाँवड़े देते हुए राम्रो बधुओं समेत सब पुत्रों को परछन करके मातायें महल में लिवा चलीं। चारि सिंघासन सहज सुहाये ॐ जनु मनोज निज हाथ बनाये तिन्ह पर कुअरि कुँअर बैठारे ॐ सादर पाय पुनीत पखारे चार सिंहासन, जो सहज सुहावने थे मानो वे कामदेव ने अपने हाथ में से बनाए थे, उन पर राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाकर, आदर के साथ में उनके पवित्र चरण धोये । । ॐ धूप दीप नैबेद बेदबिधि ॐ पूजे बर दुलहिनि मङ्गल निधि हैं। राम बाहिं बार आरती करहीं ॐ ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं ॐ धूप, दीप और नैवेद्य द्वारा वेद की विधि से मङ्गल-राशि दूलह और है दुलहिनों की पूजा की। मातायें बारम्बार आरती कर रही हैं। वर-वधुओं के सिर है पर सुन्दर पंखे तथा चँवर ढल रहे हैं। बस्तु अनेक निछावरि होहीं भरी प्रमोद भातु सब सोहीं , पावा परम तत्व जनु जोगी ॐ अमृत लहेउ जलु सन्तत रोगीं अनेक वस्तुयें निछावर हो रही हैं। आनन्द से भरी हुई सभी मातायें ॐ हैं ऐसी शोभा पा रही हैं, मानो योगी ने परम तत्व को प्राप्त कर लिया और सदा मि) * के रोगी ने अमृत पा लिया । राम जनम रङ जनु पारस पावा अन्धहि लोचन, लाभु सुहावा राम ॐ मूक बदन जनु सारदं छाई ॐ मानहुँ समर सूर जय पाई है १. हृदू डाली। २. वेद । ३. गरीव, दरिद्र ।