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गोस्वामी तुलसीदासजी का जीवनचरित

आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले सोरों (जिला एटा, उत्तरप्रदेश) के एक मुहल्ले में एक अत्यन्त निधन भिक्षुक ब्राह्मण के घर एक बालक पैदा हुआ। उसके जन्म लेते ही उसकी माँ का देहान्त होगया। फिर थोड़े ही दिनों में उसका पिता भी चल बसा। चालक किसी तरह, पता नहीं दरिद्रता की किन-किन गोदों में पलकर, जीवित बच गया। शरीर में चलने-फिरने की शक्ति आते ही वह पेट का भार उठाये हुए, रामराम बोलते हुए, पेट की आग को बुझाने के लिए स्वजाति, विज्ञति और कुलाति सब के घरों में खीस काढ़कर, पेट दिखाकर और बार -बार पैरों पर सिर रखकर टुकड़े माँगता फिरा और केवल अपने बाहुबल पर उसने करोड़ों मनुष्यों के कल्याणकारी अपने जीवन को मृत्यु से लगभग नब्बे वर्षों तक बचाये रखा।

बचपन में उसकी गरीबी का यह हाल था कि कहीं किसी के यहाँ विवाह के बाजे की आवाज़ सुनकर वह दौड़ जाता और बचाखुचा आहार पाकर निहाल हो जाता था। किसी के यहाँ श्राद्ध का समाचार पाकर बहाँ जा बैठता और एक टुकड़े के लिए घंटों टकटकी लगाये रखता था।

उसके शरीर पर वस्त्र नहीं , इधरउधर से चिथड़े जमा करके, सीकर या गाठे देकर वह तन ढक लेता। रात में कभी सड़क परकभी किसी मन्दिर में और कभी-कभी किसी मसजिद में भी सो रहता। इस प्रकार की न जाने हैं। कितनी भीषण बेदनाओंअसह्य यातनाओं के अन्दर से वह अपने शरीर को से बचाकर समाज के सामने आया और अपने अमूल्य जीवन को उसने उसी दुःख से दग्ध, ताप से पीड़ित और चिन्ता से व्याकुल समाज को दान कर दिया, जिसने उसकी जीवनरक्षा में स्वेच्छा से कुछ भी हाथ नहीं बँटाया था।

वह दुःख ही में जन्मा, दु:ख ही में पला और फिर जब तक जिया तब तक दु:ख ही को सहोदर की भाँति अपने हृदय से उसने चिपकाये रखा और फिर अपने तपोबल से उसी दुःख को सुख बनाकर संसार को सौंप दिया।

उस चमत्कारी बालक का नाम रामबोला था, जो पीछे गोस्वामी तुलसीदास के नाम से विख्यात हुआ। तुलसीदास जी का जीवनचरित दुःखों मर्मबंधी इतिहास है।

उस दीन, हीन अनाथ मनुष्य ने जागृत अवस्था में एक सुन्दर स्वप्न देखा। उसने उस स्वप्न को आदर्श पुरुषस्त्री, आदर्श समाज और सुराज,