पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४०१

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ॐ ४०० तिनका सादर अरब देइ घर आने की सोरह भाँति पूजि सनमाने के एका गहे चरन सिय सहित बहोरी ॐ बोले रामु कमल कर जोरी तो के आदर-पूर्वक अयं देकर उन्हें घर में लिवा लाये और सोलह भाँति की । (षोडशोपचार) पूजा करके उनका सम्मान किया। फिर सीता-समेत रामचन्द्रजी राम ॐ ने उनके चरण छुए और कमल के समान दोनों हाथ जोड़कर रामजी बोलेए सेवक सदन स्वामि आगमनू ६ मङ्गल मूल अमंगल दमनू । । तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती ॐ पठइ अकाज नाथ असि नीती . : सेवक के घर स्वामी का पधारना संगलों का मूल और अमंगल का नाश म करने वाला होता है। तो भी हे नाथ ! उचित तो यह है कि यदि कुछ कार्य ॐ हो तो प्रेम-पूर्वक दास ही को कार्य के लिये बुला भेजते । ऐसी ही नीति है। के (ख) प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू ॐ भयउ पुनीत आजु यहु गेहू ॐ आयसु होइ सो करौं गोसाईं ॐ सेवकु लहै स्वामि सेवकाई के परंतु प्रभु अपने प्रभुता ( मालिकी का अभिमान ) छोड़कर स्वयं पधारकर मुझ पर स्नेह किया, इससे आज यह घर पवित्र हो गया। हे गुसाईं ! जो आज्ञा हो, मैं करू, सेवक को स्वामी की सेवा मिले । । से सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस। होम = राम कसन तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस ॥६॥ ॐ ऐसे प्रेम में सने हुए वचनों को सुनकर वशिष्ठजी ने रामचन्द्रजी की प्रशंसा है की और कहा-हे राम! तुम सूर्य के वंश में भूषण रूप हो। भला, तुम ऐसी एम् बात क्यों न कहो। [सम अलंकार ] । बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ ॐ बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ भूप सजेउ अभिषेक समाजू की चाहत देन् - तुम्हहिं जुबराजू हैं । मुनिराज वशिष्ठजी रामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का बखान ॐ कर, प्रेम से पुलकित होकर बोले-हे रामचन्द्र ! राजा ने राज्याभिषेक की तैयारी हैं की है। वे तुमको युवराज-पद देना चाहते हैं। १. पूजन के १६ अंग-आवाहन, आसन, अघ्र्यपाद्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्राभरण, राम यज्ञोपवीत, गंध, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, नैवैद्य, तांबूल, परिक्रमा और वन्दना । ॐ २. सूर्य । ३. शिरोमणि, भूषण। .