पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४०६

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| *छ " अयोध्या - uई ? - ४०५ ॐ किसी के हृदय में गर्व रह नहीं जाता। तुम स्वयं जाकर सव शोभा क्यों नहीं है। उन्, देख लेतीं; जिसे देखकर मेरा मन खिन्न हुआ है। ॐ पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारे ॐ जानतिं हहु' चस नाहु हमारे नीदं बहुत प्रिय सेज तुंराई ॐ लखेहु न भूप कपट चतुराई | तुम्हारा पुत्र परदेश में है, तुम्हें कुछ सोच नहीं । तुम जानती हो कि स्वामी हमारे वश में है। तुम्हें तो तोशक-तकिये के सहारे पड़े-पड़े नींद लेना ही प्रिय लगता है। राजा की कपट-भरी चतुराई कुछ नहीं देखतीं ? सुनि प्रिय वचन मालिन भनु जानी ॐ झुकी रानि अव रहु अरगानी यम पुनि असं कबहुँ ऋहसि घरफोरी ॐ तव धरि जीभ केंद्रावउँ तोरी | मन्थरा के प्रिय वचन सुनकर और उसे मन की मैली जानकर रानी कैकेयी झुककर बोलीं-बंस, अब चुप रहे, घर फोड़ी कहीं की ! फिर ऐसा कभी कहा, तो तेरी जीभ पकड़कर खिंचवा लेंगी । एका त काने खोरे झूबरे कुटिल कुचाली जानि ।।

  • तिय बिसेष पुलिचेर कहि भरत सातु खुसुकालि ॥१४ छै काने, लँगड़े, कुबड़े ये बड़े कुटिल और कुचाली होते ही हैं, और उसमें सुमो भी स्त्री और खासकर दासी । ऐसा कहकर भरतजी की माता कैकेयी मुसकुराई ।

प्रियवादिनि सिंप दीन्हि तोही ॐ सपनेहु तो पर कोषु न मोही सुदिनु सुमङ्गल दायकु सोई छ तोर कहा फुर जेहि दिन होई | हे प्रिय बोलने वाली मन्थरा ! मैंने तुझको यह सीख दी। मुझे तेरे ऊपर ॐ स्वप्न में भी क्रोध नहीं है । सुन्दर मंगलदायक शुभ दिन वही होगा, जिस दिन । म तेरा कंहा ( रामचन्द्र का राजतिलक ) सच्चा हो जायेगा। जेठ स्वामि सेवक लघु भाई की ऐह दिनकर कुल रीति सुहाई राम तिलकु जौ साँचेहु काली ॐ देउँ माँगु मन भावत आली बड़ा भाई स्वामी और छोटा भाई सेवक होता है। सूर्यवंश की यह सुहा- १ बनी रीति है। जो सचमुच ही कल रामचन्द्र का तिलक है, तो हे सखी ! ए में अपनी मनचाही चीज़ मुझसे माँग ले, मैं देंगी। । १. हो। २. चुप । घर में फूट डालने वाली । ३. लंगड़ा, पंगुल ।।