पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४१०

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| राम को दें। ॐ यहु कुल उचित राम कहुँ टीका ॐ सवहि सुहाइ मोहिं सुठि नीका राम गिलि चात समुझि डर मोही ॐ देउ दैउ फिरि सो फलु ओही' इस कुल की रीति से राम का तिलक हो, यह तो उचित ही है। यह ये बात सभी को सुहाती है, और मुझे तो और भी अच्छी लगती है। पर मुझे तो आगे की बात विचारकर डर लगता है। दैव उलटकर इसका फल उसी कौशल्या । रचि पचि कोटि कुटिलपन कीन्हसि कपट प्रबोधु। gle कहिसिकथा सत सवति के जेहि बिधि वाढ़ बिरोध॥१८ | इस तरह करोड़ कुटिलपन की बातें बनाकर मन्थरा ने कैकेयी को वहुत सी छल-कपट की पट्टी पढ़ाई । और सैकड़ों सौर्यों की कहानियाँ सुनाईं, जिनसे | राम विरोध बढ़े। है भाची वस प्रतीति उर आई ॐ पूछ रानि पुनि सपथ देवाई ए का पूछहु तुम्ह अवहुँ न जाना छ निज हित अनहित पसु पहिचाना | होनहार-वश कैकेयी के मन में विश्वास हो आया । रानी फिर सौगन्ध दिलाकर पूछने लगी। ( मन्थरा ने कहा--) रानी ! क्या पूछती हो ? तुमने * अब भी नहीं समझा १ अपने हित और अनहित ( भले-बुरे ) को तो पशु भी । पहचान लेते हैं। भयेउ पाखु दिनु सजते समाजू ॐ तुम्हें पाई सुधि मोहि सन आजू खाइ पहिरिअ राज तुम्हारे ॐ सत्य कहे नहिं दोषु हमारे अरे ! तैयारियाँ होते-होते पन्द्रह दिन हो गये और तुमने मुझसे आज खबर पाई है ? मैं तुम्हारे राज में खाती हैं, पहनती हैं, इसलिए सच कहने में । मुझे कोई दोष नहीं है। जौं असत्य कछु कहव बनाई ॐ तौ विधि देहि महिं सजाई ए रामहि तिलक कालि जौ भयङ ॐ तुम्हें कहुँ विपति वीजु विधि वयऊ यदि मैं कुछ बात बनाकर झूठ बोलती होऊँगी, तो चिघीता सुझे दंड । देंगे। यदि कल राम को राजतिलक हो गया तो ( समझ रखना कि ) तुम्हारे । लिए ब्रह्मा ने विपत्ति का बीज बो दिया। | ॐ १. उसी को।