पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/४७

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ॐ और अंगद आदि जो बानरों का समाज है उन सब के सुन्दर चरणों की मैं वन्दना करता हूँ, जिन्होंने अधम (पशु और राक्षस के) शरीर (योनी) में भी रामचन्द्रजी ॐ को पा लिया। राम) 
रघुपति चरन उपासक जेते ॐ खग मृग सुर नर असुर समेते ॥ राम) ॐ 
बंदउँ पद सरोज सव केरे ॐ जे विनु काम राम के चेरे ॥ है राम् 

पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य और असुर समेत जितने रामचन्द्रजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरण-कमलों की वन्दना करता हूं, जो बिना किसी कामना के रामचन्द्रजी के सेवक हैं।

सुक सनकादि भगत मुनि नारद ॐ जे मुनिवर विग्यान विसारद ॥ 
प्रनवउँ सवहिं धरनि धरि सीसा । करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥

शुकदेव, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार आदि भक्त और नारद मुनि तथा जितने बड़े ज्ञानी मुनिवर हैं, उन सबको मैं धरती पर मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ । हे मुनीश्वरो ! मुझे अपना दास जानकर कृपा कीजिये ।

जनकसुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुनानिधान की ॥ 
ताके जुग पद कमल मनावउँ ॐ जासु कृपा निरमल मति पावउँ ॥

राजा जनक की कन्या, जगत् की माता और करुणा-निधान रामचन्द्रजी की अत्यन्त प्यारी श्रीजानकीजी के दोनों चरणों को मैं मनाता ( प्रणाम करता ) हूँ, जिनकी कृपा से मैं निर्मल बुद्धि पाऊँगा । ॐ

पुनि मन वचन कर्म रघुनायक ॐ चरन कमल बँदौ सव लायक ॥ है राम 
राजिव नयन धरे धनु सायक ॐ भगत विपति भंजन सुखदायक ॥

फिर मैं मन, वाणी और कर्म से सब लायक श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ। उनके नयन कमल-ऐसे हैं। धनुष-बाण घारण किये हुये वे भक्तों की विपत्ति दूर कर उनको सुख देने वाले हैं।

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न॥१८॥ 

जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और उसकी लहर के समान कहने

१. सेवक । २. वाणी । ३. लहर। ४. दुःखी, दुर्बल ।।