पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/५२

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४६ । ॐ

चहूँ चतुर कहुँ नाम अधारा ॐ ग्यानी प्रभुहिं विसेषि पिआरा ॥ राम)
चहुँ जुग चहुँ स्रुति नाम प्रभाऊ ॐ कलि विसेषि नहिं आन उपाऊ ॥

चारों चतुर भक्तों को नाम ही का आधार है; पर ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय है। यों तो चारों युगों के लिये चारों वेदों में नाम की महिमा गाई गई है, परन्तु कलियुग में तो नाम को छोड़कर कोई दूसरा उपाय ही नहीं ।

सकल कामनाहीन जे राम भगति रस लीन । 
नाम सुपेम पियूष हृद तिन्हहुँ किये मन मीन ।२२। राम

जो सब प्रकार कामनाओं से रहित होकर राम की भक्ति के रस में लीन हैं, उन्होंने भी रामनाम-रूपी सुन्दर प्रेम के अमृत-कुण्ड में अपने मन को मछली बना रखा है।

अगुन सगुन दुइ ब्रहासरूपा ॐ अकथ अगाध अनादि अनूपा ॥ 
मोरे मत वड़ नाम दुहुँ तै । किय जेहि जुग निज बस निज बूते' ॥

निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं । ( तुलसीदासजी कहते हैं ) मेरी सम्मति में नाम दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से सगुण और निर्गुण दोनों को अपने वश में कर रखा है। रामो

प्रौढि सुजन जनि जानहिं जन की ॐ कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की ॥राम । 
एक दारु गत देखिअ एकू । पावक सम जुग ब्रह्म विवेकू ॥

सज्जनगण इस बात को मुझ दास की ढिठाई या प्रौढोक्ति न समझे। राम मैं अपने मन के विश्वास, प्रीति और रुचि की बात कहता हूँ। दोनों प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान (परिचय) अग्नि के समान है। एक अग्नि तो लकड़ी के भीतर व्याप्त है और दूसरी बाहर दिखाई देती है।

उभय अगम जुग सुगम नाम ते ॐ कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें ॥
व्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी ॐ सत चेतन घन आनन्दरासी ॥

सगुण और निर्गुण दोनों को जानना कठिन है; परन्तु नाम से दोनों सुगम रोम) हो जाते हैं। इसी से मैंने निर्गुण (ब्रह्म) और सगुण (राम) दोनों को वड़ा कहा हैं। यद्यपि ब्रह्म सर्व व्यापक, एक, अविनाशी, सत्, चेतन और आनन्द की घनी राशि है।

१. वल से । २. ढिठाई । ३. मत, न ।

अपने मन के विश्वाअग्नि