पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/५८

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सराहना करते हैं और साधु, बुद्धिमान, सुशील और ईश्वर के अंश से उत्पन्न वड़ा दयालु राजा---

सुनि सनमानहिं सवहिं सुबानी । भनिति भगति नति' गति पहिचानी ॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ । जानि२ सिरोमनि कोसलराऊ ॥ 
रीझत राम सनेह निसोतें । को जग मंद मलिन मति मोते ॥

सब के कथन को सुनकर, उनकी वाणि, भक्ति, नम्रता और चाल को पहचानकर, मीठी वाणी से सबका सम्मान करता है। यह तो संसारी राजाओं का स्वभाव है। अयोध्यापति रामचन्द्रजी तो ज्ञानियों के शिरोमणि हैं। राम तो केवल विशुद्ध प्रेम से रीझ जाते हैं; पर मुझसे बढ़कर मूर्ख और मैले मनवाला और कौन है ?

दोहा- सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु ।
उपल३ किये जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु। 

कृपालु रामचन्द्रजी मुझ जैसे दुष्ट सेवक की प्रीति और रुचि को अवश्य राम रक्खेंगे। जिन्होंने पत्थरों को जहाजरूप और बन्दर भालुओं को बुद्धिमान मंत्री बना लिया। [ अर्थान्तरन्यास अलंकार ]

हौंहुँ कहावत सबु कहत राम सहत उपहास ।
साहिब सीतानाथ सों सेवक तुलसीदास ॥२८(२) 

मैं भी राम का भक्त कहलाता हूँ और सारा जगत् भी यहीं कहता है, कृपालु रामचन्द्रजी इस निन्दा को सहते हैं कि कहाँ सीतानाथ जैसे स्वामी और कहाँ तुलसीदास-सा सेवक !

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी । सुनि अघ नरकहु नाक सिकोरी ॥
समुझि सहम मोहिं अपडर अपनें । सो सुधि राम कीन्ह नहिं सपने ॥

यह कहना मेरी बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पापों को सुनकर नरक भी नाक सिकोड़ता है। यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित भय से संकोच हो रहा है; पर रामचन्द्रजी ने तो इसका स्वप्न में भी कभी ख्याल नहीं किया।


१. नम्रता । २. ज्ञानी । ३. पत्थर ।