पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/५९

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सुनि अवलोकि सुचित चख१ चाही२ । भगति मोरि मति स्वामि सराही॥ 
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी । रीझत राम जानि जन जी की ॥ 

मेरी प्रार्थना सुनकर स्वामी रामचन्द्रजी ने आँख की अपेक्षा चित्त से अच्छी तरह देखकर मेरी मति और भक्ति की सराहना की। कहने में भले ही हो बिगड़ जाय, परन्तु हृदय में अच्छी हो, तो रामचन्द्रजी भक्तों के हृदय की बात राम जानकर रीझ जाते हैं।

रहति न प्रभु चित चूक किये की । करत सुरति सय३ वार हिये की ॥
जेहि अघ वधेउ व्याध जिमि वाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली ॥

प्रभु रामचन्द्रजी के चित्त में भक्तों की की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती। के वे उनके हृदय की अच्छाई को सौ बार स्मरण करते रहते हैं। जिस पाप से रामको चन्द्रजी ने बालि को व्याध की तरह मारा था, वही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली । [निदर्शना अलंकार ]

सोइ करतूति विभीषन केरी४ । सपनेहुँ सो न राम हिय हेरी ॥
ते भरतहिं भेटत  सनमाने । राजसभा रघुवीर वखाने ॥ 

वही करनी विभीषण ने की; पर उन रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी मन में विचार नहीं किया। उलटे भरतजी से मिलने के समय रामचन्द्रजी ने उनका सम्मान किया और राज-सभा में भी उनका बखान किया।

प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किय आपु समान ।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान्।२९। (१)

प्रभु रामचन्द्रजी तो वृक्ष के नीचे और बन्दर डाली पर; तो भी उन्होंने राम्रो हैं उन्हें अपने समान बना लिया। तुलसीदास जी कहते हैं कि रामचन्द्रजी के समान शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं है।

राम निकाई५ रावरी६ है सब ही को नीक ।
जौ यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥२९॥ (२) 

हे रामचन्द्रजी ! आपकी अच्छाई सबका कल्याण करने वाली है। यदि । में यह बात सच है, तो तुलसीदास को भी वह सदा अच्छी ही रहेगी।

१. आँख । २. अपेक्षा । ३. सौ । ४. की ! ५. अच्छापन । ६. आपकी ।